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गुणश्रेणिविशेष प्ररूपणा
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स । १२ - २ कदाचित्संख्यातगुणहीनं स । १२ - कदाचिदसंख्यातगुणहीनं स । १२ - वा ७ ओ
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७ ओ
७ ओ
द्रव्यमपकृष्य गुणश्रेणिनिक्षेपं करोति । विशुद्धिसंक्लेशपरिणामपरावृत्ति वशेनैवंविधद्रव्यापकर्षणसंभवात् । एवं स्वस्थानदेशसंयतो जघन्येनान्तर्मुहूर्त पर्यन्तमुत्कर्षेण देशोनपूर्वकोटिपर्यन्त च गुणश्रेण्यायामे द्रव्यं निक्षिपतीत्यर्थः ।। १७६ ।।
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अथाप्रवृत्त संयतासंयतके गुणश्रेणिद्रव्यकी प्ररूपणा
सं० चं० - अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव सो कदाचित् विशुद्ध होइ कदाचित् संक्लेशी होइ तहाँ विवक्षित कर्मका पूर्व समयविषै जो द्रव्य अपकर्षण कीया तातैं अनन्तर समयविषै विशुद्धताकी वृद्धि अनुसारि कदाचित् असंख्यातवें भाग बँधता कदाचित् संख्यातवाँ भाग बँधता, कदाचित् संख्यातगुणा कदाचित् असंख्यातगुणा द्रव्यकौं अपकर्षण करि गुणश्र णिविषै निक्षेपण करे है । बहुरि विशुद्धताकी हानिके अनुसारि कदाचित् असंख्यातवें भाग घटता, कदाचित् संख्यातवें भाग घटता, कदाचित् संख्यातगुणा घटता कदाचित् असंख्यातगुणा घटता द्रव्यकों अपकर्षणकरि गुणश्र ेणिविषै निक्षेपण करे है । ऐसें अधाप्रवृत्त देशसंयतका सर्वकालविषै समय समय यथासम्भव चतुःस्थान पतित वृद्धि हानि लीएं गुणश्रेणि विधान पाइए है ॥ १७६ ॥
विशेष – देशसंयतका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट काल आठ वर्ष मुहूर्त कम एक कोटिवर्ष प्रमाण है । इसलिये इस कालके भीतर परिणामोंमें स्वभावतः संक्लेश और विशुद्धिका क्रम चलता रहता है । तदनुसार गुणश्रेणिमें निक्षिप्त होनेवाले द्रव्यमें भी फेर फार होता रहता है । इसी तथ्यको इस गाथामें स्पष्ट करके बतलाया है । यद्यपि वृद्धियाँ छह और हानियाँ छह मानी गई हैं, पर यहाँ अनन्त भागवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि तथा अनन्त भागहानि और अनन्त गुणहानि इस प्रकार दो वृद्धि और दो हानि सम्भव न होनेसे परिणामोंके विशुद्धिकाल में यथासम्भव चार वृद्धियाँ होती हैं और संक्लेशकालमें यथासम्भव चार हानियाँ होती हैं । इनके विषय में विशेष स्पष्टीकरण टीकामें किया ही है ।
देशसंयतस्यानुभागखण्डोत्करणकालादीना मल्पबहुत्वप्रतिपादनप्रतिज्ञाप्रदर्शनार्थमिदमाह– विदियकरणादु जावय देसस्सेयंतबड्डिचरिमेत्ति | अप्पात्रहुगं वोच्छं रसखंडद्धाणपहुदी द्वितीयकरणात् यावत् देशस्यैकांत वृद्धिचर मे इति । अल्पबहुत्वं वक्ष्ये रसखंडाध्वानप्राभृतीनाम् ॥ १७७ ॥
।। १७७ ।।
सं० टी० - अपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्य एकान्तवृद्धिदेशसंयतपर्यतं संभवतां जघन्यानुभागखण्डोत्करणकालादीनामष्टादशपदानामल्पबहुत्वं प्रवक्ष्यामीति प्रतिज्ञार्थः ।। १७७ ।।
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१. तदो एदिस्से परूवणाए समत्ताए संजमासंजमं पडिवज्जमाणस्स पढमसमयअपुव्वकरणादो जाव संजदासंजदो एयंताणुवड़ढीए चरिताचरितलद्धीए वड्ढदि एदम्हि काले ट्ठिदिबंध - ट्ठदिसंतकम्म - ट्रिट्ठदिखंडयाणं जहण्णुक्कस्सयाणमावाहाणं जहण्णुक्क स्सियाणमुक्कीरणद्धाणं जहण्णुक्कस्सियाणं अण्णेसि च पदा - हुअ' बत्तइसाम । कसाय० चू०, जयध० पु० १३, पृ० १३२ ।
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