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लब्धिसार
स ३।१२ - असंख्यातकभागमपकृष्य स a। १२ - इदं पल्यासंख्यातभागेन खण्डयित्वा बहभागद्रव्य
७ ओ मुपरितनस्थितौ निक्षिपेत् । पुनस्तदेकभागसंख्यातलोकेन भक वा तदेकभागमुदयावल्यां दत्त्वा तद्बहुभागमसंख्यातसमयप्रबद्धमात्र गुणश्रेण्यायामे निक्षिपेत् । अयं च गुणश्रेण्यायामः देशसंयमप्रथमसमयादारभ्य द्वितीयादिसमयेष्ववस्थित एव न गलितावशेषमात्रः । एतद्गुणश्रेण्यायामप्रमाणं प्रथमोपशमसम्यवत्वोत्पत्तिगुणश्रेण्यायामेन संख्यातगुणहीनं २ १२॥ १७३ ॥
देशसंयमकी प्राप्तिके प्रथम समयसे कार्य विशेषका निर्देश
सं० चं०-अपूर्वकरणका अन्त समयके अनन्तरवर्ती समयविष जीव देशव्रती होइ करि अपने देशवतका कालविर्षे आयु विना अन्य कर्मनिका सत्त्वद्रव्य ताकौं अपकर्षण भागहारमात्र असंख्यातका भाग देइ एकभागवि असंख्यात समय प्रबद्धप्रमाण द्रव्यकों ग्रहि करि ताकौं पल्यका असंख्यातवाँ भागका भाग देइ बहुभाग उपरितन स्थितिविष देना अवशेष एक भागकौं असंख्यात लोकका भाग देइ एक भाग उदयावलीविष देना अरु बहुभाग असंख्यात समयप्रबद्धमात्र है सो गुणश्रेणि आयामविर्षे देना। सो यह गुणश्रेणि आयाम अवस्थित है गलितावशेष नाहीं है अर प्रथमोपशम सम्यक्त्वसम्बन्धी गुणश्रेणि आयामत संख्यातगुणी घटता है। ऐसे देशव्रती होइ उदयावली बाह्य अवस्थिति गुणश्रेणि करै है ।। १७३ ।।
विशेष-गुणश्रेणि दो प्रकारकी होती है-एक गलितशेष गुणश्रेणि और दूसरी अवस्थित गुणश्रेणि । गलितशेष गुणश्रेणि तत्प्रायोग्य अन्तमुहूर्तके जितने समय होते हैं तत्प्रमाण आयामवाली होती है सो उदयावलिके एक एक निषेकके गलने पर उसके प्रमाणमेंसे एक एक समयकी कमी होती जाती है। अवस्थित गुणश्रेणि भी यद्यपि अन्तमुहूर्तकालप्रमाण आयामवाली होती है। परन्तु उसमेंसे उदयावलिके एक निषेकके गलने पर गुणश्रेणिशीर्ष में एक निषेकको वृद्धि होती जाती है । इसलिये इसका प्रमाण सदा स्थिर रहनेसे इसे अवस्थित गुणश्रेणि कहते हैं। संयमासंयमकी उत्पत्तिकालमें तो गुणश्रेणि रचना नहीं होती। पर संयमासंयमकी प्राप्तिके प्रथम समयसे ही अवस्थित गुणश्रेणिका क्रम प्रारम्भ हो जाता है। इतना अवश्य है कि इसके उदयावलिके निषेकोंको छोड़कर ऊपरके अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण निषेकोंमें ही गुणधोणि रचना होती है। अथ देशसंयमस्यावस्थाविशेषतत्कार्यविभागप्रदर्शनार्थमाह
दव्वं असंखगुणियक्कमेण एयंतबढिकालो त्ति । बहुठिदिखंडे तीदे' अधापवत्तो हवे देसो ।। १७४ ।। द्रव्यमसंख्यगुणितक्रमण एकांतवृद्धिकाल इति ।
बहुस्थितिखंडेऽतीते अधाप्रवृत्तो भवेद्देशः ॥ १७४ ॥ सं० टी०-अयं देशसंयतः प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिवृद्धया वर्धमानोऽन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं द्रव्यमसंख्यात
१. कुदो षुण करणपरिणमेसु उवसंहरिदेसु छिदिखंडयादीणमेत्थ संभवो त्ति णासंका कायव्वा, करणपरिणाभावे वि एयंताणुवढिदसंजमासंजमपरिणामपाहम्मेण ठिदिधादाणमेत्य पबत्तीए बिरोहाभावादो। जयध० पु० १३ पृ० १२४ ।
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