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क्षायिक सम्यग्दृष्टिके विषयमें विशेष विधान उपनयतु मंगलं वो भविकजनान् जिनवरस्य क्रमकमलयुगं।
झषकुलिशकलशशक्थिकशशांकशंखांकुशादिलक्षणभरितं ॥ १६७॥ सं० टी०-सत्तह्णमित्यादिगाथात्रयस्यार्थः सुगमः, किन्तु निष्प्रकम्पं निश्चल सुनिर्मल' अतिशयेन शङ्कादिमलरहितं अक्षयं गाढं अहीनशक्तिकत्वेन शिथिलत्वाभावात् । अनन्तं-अपर्यवसानं तुयंभवं भोगभूमिभवापेक्षया । जघन्यक्षायिकलब्धसंयतसम्यग्दृष्टौ उत्कृष्टक्षायिकलब्धिः परमात्मनि भवति ॥ १६४-१६७ ।। एवं दर्शनमोहक्षपणाटिप्पणं ।
सं० चं०-अनंतानुबंधी चतुष्क दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतिनिका क्षयतै क्षायिक सम्यक्त्व हो है सो निष्कंप कहिए निश्चल है । सुनिर्मल कहिए शंकादि मलकरि रहित है । अक्षय कहिए शिथिलताके अभावतै गाढा है । अनन्त कहिए अंत रहित है ।। १६४ ॥
___ सं० चं०-दर्शनमोहका क्षय होते तिस ही भवविौं वा तीसरा भवविर्षे वा मनुष्य तिर्यचका पूर्वं आयु बांध्या होइ तौ भोगभूमि अपेक्षा चौथा भववि सिद्ध पद पावै । चौथा भवकौं उलंघे नाही। बहुरि औपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्ववत् यहु नाशकौं प्राप्त न हो है ॥ १६५ ॥
___ सं० चं०-सात प्रकृतिनिके क्षयतै असंयत सम्यग्दृष्टीकै क्षायिक सम्यक्त्ववत् जघन्य क्षायिक लब्धि हो है। बहुरि च्यारि घातिया कर्मनिके क्षयतें परमात्मा केवलज्ञानादिरूप क्षायिक लब्धि हो है ॥ १६६ ॥ ।
विशेष-१६७ नंबरकी गाथा भाषाटीकामें नहीं है । उसका अर्थ यह है कि-मत्स्य, वज्र कलश, शंख आदि नाना शुभलक्षणोंसे सुशोभित जिनेंद्र भगवान्के चरण कमल भव्य लोगोंको मंगल प्रदान करें।
इति क्षायिकसम्यक्त्वप्ररूपणं समाप्तं ॥
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