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अल्पबहुत्वप्ररूपणा
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घाटि अष्टवर्षमात्र विशेषकरि अधिक मिश्रमोहनीका अन्तका स्थितिकांडक आयाम है ॥ १७ ॥ तातें असंख्यातगुणा अन्त स्थितिकांड की अन्तफालिका द्रव्यकौ मिश्रमोहनीविषै संक्रमणकरि मिथ्यात्वका क्षय करनेका समयतें अनन्तरवर्ती समयविषै सम्भवता मिश्रमोहनी वा सम्यक्व - मोहनीका प्रथम स्थितिकांडक आयाम है ॥ १८ ॥ तातें असंख्यातगुणा मिथ्यात्वका सत्त्व द्रव्य अन्तकांडक प्रमाण अवशेष जहां रहें तिस कालविषं सम्भवता मिश्रमोहनी वा सम्यक्त्वमोहनीका अन्तकांकका आयाम है ॥ १९ ॥। १५६-१५७ ।।
सं० चं०- तातै मिथ्यात्वका सत्त्व जिस कालविषे पाइये तिस विषै मिश्र सम्यक्त्वमोहनीका अन्तकांडकका घात भए पीछें अवशेष रही जो तिन दोऊनिकी नीचेकी स्थिति पल्यका असंख्यातवां भागमात्र ताकरि अधिक मिथ्यात्वका अन्तकांडकका आयाम है ।। २० ।। १५८ ।।
सं० चं० - तातैं असंख्यातगुणा दर्शनमोहत्रिककी दूरापकृष्टि नामा स्थितिविषै प्राप्त भया ऐसा पल्यका असंख्यात बहुभागमात्र स्थितिकांडक आयाम है ॥ २१ ॥ तातें संख्यातगुणा दूरापकृष्टि स्थितिको कारण ऐसा पल्यका संख्यात बहुभागमात्र स्थितिकांडक आयाम संख्यातगुणा है || २२ || १५९ ।।
सं० चं०- तातें संख्यातगुणा पल्यमात्र अवशेष स्थिति होते पाइए ऐसा द्वितीय स्थितिकांडकका आयाम है || २३ || तातै संख्यातगुणा पल्यमात्र स्थितिको कारणभूत ऐसा पल्यका संख्यातवां भागमात्र स्थितिकांडक आयाम है ॥ २४ ॥ तातै संख्यातगुणा अपूर्वकरणका प्रथम समयविषै जाका प्रारम्भ भया जो जघन्य स्थितिकांडक ताका आयाम है ।। २५ ।। १६० ॥
सं० चं० – तातै संख्यातगुणा पल्यमात्र अवशेष स्थितिविषै प्राप्त ऐसा पल्यका संख्यातबहुभागमात्र प्रथम कांडकका आयाम है ।। २६ ।। तातें पल्यका संख्यातवां भागमात्र विशेषकरि अधिक पल्यमात्र स्थितिसत्त्व है ।। २७ ।। १६१ ॥
सं० चं० तातें संख्यातगुणा अपूर्वकरणका प्रथम समयविषै जघन्य अर उत्कृष्ट कांडकनिविष बीचिके विशेषका प्रमाण पल्यका संख्यातवां भागकरि होन पृथक्त्व सागर प्रमाण है ॥ २८ ॥ तातैं संख्यातगुणा अनिवृत्तिकरणका प्रथम समयविषै सम्भवता दर्शनमोहक स्थिति सत्त्व है ॥ २९ ॥ तातैं संख्यातगुणा कृतकृत्य वेदकका प्रथम समयविषं संभवता दर्शनमोह विना अन्य कर्मनिका जघन्य स्थितिबंध है ॥ ३० ॥ तातें संख्यातगुणा अपूर्वकरणका प्रथम समयविषै संभवता तिनही कर्मनिका उत्कृष्ट स्थितिबंध है || ३१ ॥ तातें संख्यातगुणा अनिवृत्तिकरणका अंत भागविषै संभवता तिनही कर्मनिका जघन्य स्थितिसत्त्व है || ३२ ॥ तातै संख्यातगुणा अपूर्व करणका प्रथम समयविषै संभवता तिनही कर्मनिका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व है ॥ ३ ॥ ऐसें दर्शन मोहकी क्षपणाका अवसर विषै संभवते अल्पबहुत्वके तेतीस स्थान हैं ॥ १६२-१६३ ।।
विशेष – जयधवला टीकाके अनुसार अब उक्त अल्पबहुत्वका स्पष्टीकरण करते हैं - अनुभागकाण्डकका जघन्य उत्कीरण काल सबसे स्तोक होता है, क्योंकि अल्पबहुत्वके प्रसंगसे आगे कहे जानेवाले सब पदोंके कालसे अनुभागकाण्डकका जघन्य उत्कीरणकाल सबसे अल्प है । यहाँ दर्शनमोहनीयका आठ वर्ष प्रमाण स्थितिसत्कर्म रहने पर जो पूर्वका अनुभागकाण्डक है उसका सबसे जघन्य उत्कीरणकाल ग्रहण करना चाहिये । परन्तु ज्ञानावरणादि शेष कर्मोंकी अपेक्षा कृतकृत्य होनेके प्रथम समय में जो पहलेका अनुभागकाण्डक है उसका अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में
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