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लब्धिसार
विशेष-प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादष्टि जीवके जो तीन करण परिणाम होते हैं उनकी अपेक्षा प्रथमोपशम सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको ग्रहण करनेवाले जीवके तीनों करण परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए होते हैं, इसलिये केवल प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवके आयकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोंका जितना स्थितिसत्त्व होता है उससे प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित संयमासंयमको ग्रहण करनेवाले जीवके उक्त कर्मोका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा हीन होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सकलसंयमकी अपेक्षा भी इसी विधिसे विचार कर लेना चाहिए। अथ दर्शनमोहोपशमनकाले संभवद्विशेषमाह
उवसामगो य सब्यो णिवाघादो तहा णिरासाणो । उवसंते भजियव्यो णिरासणो चेव खीणम्हि ॥९९।। उपशामकश्च सर्वः नियाघातस्तथा निरासानः ।
उपशांते भजितव्यो निरासानश्चैव क्षीणे ॥१९॥ सं० टी०-सर्वः सोपसर्गों निरुपसर्गो वा दर्शनमोहोपशमको निर्याधात: विच्छेदमरणलक्षणव्याघातरहित एव तथा निरासादनश्च । तदुपशमनकाले अनंतानुबंध्युदयामावेन सासादनगणप्राप्तेरभावात् । उपशांते दर्शनमोहे अंतरायामे वर्तमानः प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि: सासादनगुणप्राप्त्या भक्तव्यो विकल्पनीयः । कस्यचित्प्रथमोपशमसम्यक्त्वकाले एकसमयादिषडाबलिकांतावशेषे सासादनगुणत्वसंभवात् । उपशमसम्यक्त्वकाले क्षीणे समाप्ते सति निरासादन एव तदा नियमेन मिथ्यात्वाद्यन्यतमोदयसंभवात ॥ ९९ ।।
अब दर्शनमोहके उपशमनके समय जो विशेषता सम्भव है उसका कथन करते हैं
स० चं०-सर्व ही दर्शनमोहका उपशम करनेवाला जोव निर्व्याघात कहिए विच्छेद वा मरण करि रहित है अर निरासादक कहिए सासादनकौं प्राप्त न हो है। बहुरि उपशम भए पीछे उपशमसम्यक्त्वी होइ तब भजनीय है-कोई जीव सासादनकौं प्राप्त न हो है कोई जीव र हो है । बहुरि क्षीणे कहिए उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त भएं पीछे सासादन न होई। तहां नियमतें दर्शनमोहकी तीनि प्रकृतिनिविर्षे एकका उदय होय ॥१९॥ अथ सासादनस्वरूपं कालप्रमाणं चाह
उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमेत्ता दु समयमेत्तो ति । अवसिहे आसाणो अणअण्णदरुदयदो होदि ॥१०॥ उपशमसम्यक्त्वाद्धा षडावलिमात्रस्तु समयमात्र इति ।
अवशिष्टे आसादनः अनान्यतमोदयतो भवति ॥१००॥ सं० टी०-उपशमसम्यक्त्वस्य काले एकसमयादिषडावलिकांते अवशिष्टे अनंतानुबंधिनामन्यतमोदयेन उपशमसम्यक्त्वं विराध्य मिथ्यात्वमप्राप्य सासादनो नाम भवति, न सम्यग्दृष्टि पि मिथ्यादृष्टि: किंतु सासादनोऽनुभयरूपः । अस्य काल: जघन्यनै कप्तमयः । उत्कर्षेण षडावलिका इत्यर्थः ।। १००॥
१. कसाय०, गा० १०० ।
२. उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए तदो प्पडि सासणगुणपडिवत्तीए केसु वि जीवेसु संभवदसणादो । जयध० भा० १२, पृ० ३०३ ।
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