________________
१००
लब्धिसार ष्टावलिको छोड़कर उसके शेष समस्त स्थितिसत्कर्मको घातके लिए ग्रहण करता है, यह उक्त दोनों गाथाओंका तात्पर्य है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीव ही क्रमसे मिथ्यात्व आदि तीनों प्रकृतियोंका क्षय कर क्षायिकसम्यग्दृष्टि बनता है, अतः जो जीव मिथ्यात्व प्रकृतिको क्षपणा करते समय मिथ्यात्व प्रकृतिके संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका घात करते हुए उसकी उच्छिष्टावलिमात्र स्थिति शेष रखनेके सन्मुख होता है तब उसके मध्य कालमें प्रति समय सम्यक्त्व प्रकृतिके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा कैसे होती है इसी तथ्यका स्पष्टीकरण प्रकृतमें करते हुए यह बतलाया गया है कि सम्यक्त्वप्रकृतिके द्रव्यमें जितने द्रव्यका अपकर्षण होता है उसमेंसे बहुभागप्रमाण द्रव्यका तो गुणश्रेणिके ऊपरके निषेकोंमें निक्षेप करता है। जो शेष एक भाग रहता है उसमेंसे बहुभागप्रमाण द्रव्यका गुणश्रेणिमें निक्षेप करता है तथा शेष एक भागप्रमाण द्रव्यको उदयावलिमें देता है । यहाँ जो शेष एक भागप्रमाण द्रव्य उदयावलिमें दिया गया है वह भी असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्रकृतमें सर्वत्र पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण भागहार जानना चाहिए। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
जत्थ असंखेज्जाणं समयपबद्धाणुदीरणा तत्तो । पल्लासंखेज्जदिमो हारो णासंखलोगमिदो॥ १२३ ।। यत्रासंख्येयानां समयप्रबद्धानामुदीरणा ततः।
पल्यासंख्येयः हारो नासंख्यलोकमितः॥ १२३ ॥ सं० टी०-यस्मिन्नवसरे असंख्ययानां समयप्रबद्धानां उदीरणा उपरितनस्थितिस्थितानामदयावलिप्रवेशो भवति तत्समयादारभ्य उत्तरकाले पल्यासंख्यातभागमात्र एव उदयावलिनिक्षेपार्थः भागहारो नासंख्यातलोकप्रमितः ।। १२३ ।
स० चं०-जिस अवसर विषं असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होइ ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य उदयावलीविर्षे प्राप्त होइ तिस समयतें लगाय उत्तर कालविर्षे उदयावलीविर्षे द्रव्य देनेके अथि भागहार पल्यका असंख्यातवां भागमात्र ही जानना। पूर्ववत् असंख्यात लोकमात्र न जानना ।।१२३॥
मिच्छच्छिट्ठादुवरिं पल्लासंखेज्जभागिगे खंडे । संखेज्जे समतीदे मिस्सुच्छिटुं हवे णियमा।। १२४ ।। मिथ्योच्छिष्टादुपरि पल्यासंख्येयभागगे खंडे ।
संख्येये समतीते मिश्रोच्छिष्टं भवेत् नियमात् ॥ १२४ ॥ सं० टी०-यस्मिन् समये मिथ्यात्वप्रकृतेरुच्छिष्टावलिमात्रमवशिष्यते शेषा सर्वापि स्थितिर्बहुभिः स्थितिकांडकैः खंडिता भवति, तस्मात्समयादारभ्य सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृत्योः स्थिती पल्यासंख्यातभागबहुभागायामेषु संख्यातसहस्रस्थितिकांडकेषु गतेषु चरमकांडकचरमफालिपतनसमये मिश्रप्रकृतेरुच्छिष्टावलिमात्रमवशिष्यते ।। १२४ ।।
१. एत्तो पुव्वं व सम्वत्थेव असंखेज्जलोगपडिभागण, सव्वकम्माणमुदीरणा । एण्हि पुण सम्मत्तस्स पलिदोवमस्सासंखेज्जविभागपडिभागेणुदीरणा पयट्टा त्ति जं वुत्तं होइ । जयध० भा० १३, पृ० ४९ ।
२. एवं संखेज्जेहिं ट्रिदिखंडएहि गदेहिं सम्मामिच्छत्तमावलियबाहिरं सव्वमागाइदं । क. चु०, जयध० भा० १३, पृ० ५३ । ध० पु० ६, पृ० २५८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org -