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लब्धिसार
चरमफालिद्रव्यस्योदयादिचरमस्थितिपर्यंतं निक्षेप्यनिषेकाः प्रत्येकं संख्यातगुणहीना दीयंते । अष्टवर्षद्वितीयसमयादिप्रथमकांडकद्विचरमफालिपतनसमयपर्यंतमपकृष्टद्रव्यस्य ये निषेकास्ते पुनः प्रत्येकम संख्यातगुणहीना निक्षिप्यते । ततः कारणात्तत्र तत्र विवक्षितसमये अपकृष्टद्रव्यस्य गुणश्र णिशीर्षद्रव्यं तदवस्तननिषेकद्रव्यादसंख्येयगुणं धनमागच्छति इति गुणश्र णिशीर्षनिषेके दृश्यं विशेषाधिकमिति भावः ॥ १३६ ॥
सं० चं० -- अष्टवर्ष करनेका प्रथम समयविषै मिश्र सम्यक्त्वमोहनीकी अंत दोय फालीनिका द्रव्यदीया संता उदयरूप प्रथम समयत लगाय स्थितिका अन्त समयपर्यन्त संबंधी निषेक जे सत्तारूप पाइए है तिनिविषे प्रथमकांडककी अंत फालिका द्रव्यकौं कांडककालका अंत समयविषै जो निक्षेपण कीया तिसका प्रमाण एक एक निषेकविषै पूर्वसत्तारूप द्रव्यका प्रमाणत संख्यातगुणा घटता जानना । अर अष्टवर्ष स्थिति करनेका द्वितीय समयतै लगाय प्रथम कांडककी द्विचरम फालिका पतन समय पर्यंत समयनिविषै जो अपकर्षण कीया द्रव्यकौं तिनि निषेकनिविषै निक्ष ेपण कीया तिसका प्रमाण एक-एक निषेकनिविषै पूर्वसत्तारूप द्रव्यका प्रमाणतें असंख्यातगुणा घटता जानना । जातै विवक्षित समयविषै अपकर्षण कीया द्रव्य जो गुणश्रेणिशीर्यविषै दीया सो ताके नीचे निषेकविषै दीया अपकृष्ट द्रव्यतें असंख्यातगुणा धन आवे है । बहुरि सर्व सत्तारूप द्रव्य अर निक्षेपण कीया द्रव्यकों मिलाएं जो दृश्यमान द्रव्य भया सो पूर्व - पूर्व समयसंबंधी गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्यतै उत्तर उत्तर समयसंबंधी गुणश्रेणिशीषका द्रव्य किछु विशेष करि ही अधिक है, गुणरूप नाही है ॥ १३६ ॥
जदि गोउच्छविसेसं रिणं हवे तो वि धणपमाणादो ।
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जम्हा असंखगुणूणं ण गणिज्जदि तं तदो एत्थ ।। १३७ ।।
यदि गोपुच्छविशेषं ऋणं भवेत् तथापि धनप्रमाणान् । यस्मादसंख्य गुणनं न गण्यते तत्ततोऽत्र ॥ १३७ ॥
सं० टी० - अनन्तरोक्तविधानेन गुणश्रेणिशीर्षनिषेके दृश्यद्रव्यं तदधस्तनगुणश्रेणिशीर्षद्रव्याद्विशेषाधिकमित्यत्र एकचयमात्रं ऋणमस्तीत्याशंक्य तत्परिहारार्थमिदं सूत्रमाह । यद्यपि अष्टवर्षद्वितीयसमयेऽपकृष्टद्रव्यस्य गुणश्रेणिशीर्ष निक्षिप्तनिषे द्रव्यादष्टवर्षप्रथमसमयगुणश्र णिशीर्षस्योपरितनानन्तरनिषेकगतऋणमसंख्येयगुणहीनं यस्मात्कारणात्तेन कारणेनोपरितनगुणश्र णिशीर्ष दृश्यमानं साधिकमेवेति निर्णेतव्यम् । धनादृणस्यासंख्यातगुण हीनत्वेनाणगत्वान् । यावच्च य एतदृशो वर्तते तावत् गोपुच्छविशेष इत्युच्यते, क्रमहान्यपेक्षया गोपुच्छ इव गोपुच्छ इति गौणशब्दाश्रयणात् ।। १३७ ।।
सं० चं० - जैसे गौका पूंछ क्रमतें घटता हो है तैसें चय घटताक्रम जहां होइ तहां गोपुच्छ कहिए । अर यावत् समान चय होइ तावत् गोपुच्छ विशेष कहिए । सो नीचले गुणश्रेणिनिषेकका सत्त्व द्रव्यतै ऊपरिके गुणश्रेणिशीर्षका सत्त्वद्रव्यविषै गोपुच्छ विशेषमात्र यद्यपि ऋण है । भावार्थ-यहु निषेकनिविषै चय घटता क्रमतें है तातें पूर्व समय संबंधी गुणश्र णिशीर्षका सत्त्व द्रव्यतै उत्तर समयसम्बन्धी गुणश्र णिशीर्षका सत्त्व द्रव्यविषै चयप्रमाण द्रव्य घटता चहिए ताक न घटाया अर विशेष अधिक अधिक कह्या सो कारण कहा ? ऐसे प्रश्न कीएं उत्तर कहै है - जु यद्यपि ऐसें हैं तथापि बहु मिलाया हुआ जो अपकृष्ट द्रव्य तातैं यहु चयप्रमाण घटता द्रव्य है सो असंख्यातगुणा घटता है, सो इहां घटावने योग्य ऋणकौं मिलावने योग्य धनतें असंख्यातवें भाग जानि स्तोकपनेते गिण्या नाहीं । पूर्व गुणश्र ेणिशीर्षका दृश्य द्रव्यतें उत्तर शिर्षक द्रव्य विशेष अधिक ही कह्या ॥ १३७ ॥
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