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लब्धिसार
मोहनी सम्यक्त्वमोहनीका अंत कांडककी दोय फालिका पतन भया तिस ही समयवि सम्यक्त्व मोहनीका अनुभाग पूर्व समयके अनुभागते अनंतगुणा घटता अवशेष रहै है। सोई कहिए है
. सम्यक्त्वमोहनीका अंत कांडककी द्विचरम फालि पतन समय जो अष्ट वर्ष स्थिति करनेका समयतें पूर्व समय तहाँ पर्यंत तौ लता दारुरूप द्विस्थानगत अनुभाग है सो अनुभागकांडकघाततै अनंतगुणा घटता भया। बहुरि यहु चरम फालि पतन समय जो अष्ट वर्ष स्थिति करनेका समय तिस विषै अनंतगुणा घटता होइ लतासमान एक स्थानकौं प्राप्त अनुभाग भया । इहांतें लगाय जो पूर्वै अंतर्मुहूर्त कालकरि अनुभाग कांडकाघात होता था ताका अभाव भया अर समय समय प्रति अनंतगुणा घटता क्रम लीएं अनुभागका अपवर्तन होने लगा तहां अनंतरवर्ती अष्ट वर्ष क रनेके समयतें जो पूर्व समय तीहिविर्षे निषेकनिका जो अनुभागसत्व था तातें अनंतगुणा घटता अष्ट वर्ष स्थिति करनेका समयविर्षे उदयावलोके उपरिवर्ती जो उपरितनावली ताके प्रथम निषेकनिका अनुभाग सत्व अवशेष रहै है । अवशेष अनंत बहुभागका विशुद्धताविशेषतै अपवर्तन भया, नाश भया । बहुरि तिस ही समयविर्षे उदयावलीके अंत निषेकका अनुभागसत्व तिस अपने उपरिवर्ती उपरितनावलीका प्रथम निषेकका अनुभागसत्त्वतै अनंतगुणा घटता रहै है । अवशेषका नाश हो है। बहुरि तातै अनंतगुणा घटता उदयावलीके प्रथम निषेकका अनुभागसत्व रहै है। अवशेषका नाश हो है। बहुरि तारौं अनंतगुणा घटता अष्ट वर्ष करनेके समयतें लगाय अनंतरवर्ती आगामी समयविर्षे अनंतगुणा घटता अनुभागसत्व हो है औसैं समय समय प्रति अनंतगुणा घटता अनुक्रमरि उच्छिष्टावलीका अंत समय पर्यंत अनुभागका अपवर्तन जानना ।। १३१ ॥
विशेष-जहाँ सम्यक्त्वका आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्त्व होता है वहाँसे लेकर उसके अनुभागका प्रत्येक समयमें अपवर्तन होने लगता है। क्रम यह है कि अनन्तर पूर्व समयमें जो द्विस्थानीय अनुभागसत्त्व था उससे वर्तमान समयमें उदयावलिसे उपरितन स्थिति में अनन्तगुणा हीन एकस्थानीय अनुभाग सत्त्व हो जाता है। उससे उदयावलिके अन्तिम निषेकमें अनन्तगुणा हीन एकस्थानीय अनुभागसत्त्व हो जाता है और इसी क्रमसे उत्तरोत्तर कम होता हुआ उदय स्थितिमें अनन्तगुणा हीन एकस्थानीय अनुभागसत्त्व हो जाता है। आशय यह है कि सम्यक्त्वका आठ बर्षप्रमाण स्थितिसत्त्व रहनेके पूर्व प्रत्येक अनुभागकाण्डकका अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त कालमें घात करता था। अब प्रत्येक समयमें सम्यक्त्वके अनुभागका अनन्तगणी हानिरूपसे अपवर्तन करता है। उसमें भी पहले जो लता-दारुरूप द्विस्थानीय अनुभागसत्त्व था उसका प्रत्येक समयमें लतारूप एकस्थानीय अनुभागरूपसे अपवर्तन करने लगता है। इसी तथ्यको समग्ररूपसे इस प्रकार जानना चाहिए कि अनन्तर पूर्व समयमें जो अनुभागसत्व था उससे वर्तमान समयमें उदयावलिके बाहर स्थित अनुभागसत्त्व प्रति समय अनन्तगुणा हीन होने लगता है। तथा इस उदयावलिके बाहर स्थित अनुभागसत्कर्मसे उदयावलिमें अनुप्रविशमान अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है और उससे भी उदय समयमें प्रविशमान अनुभागसत्त्व अनन्तगणा हीन होता है। यह क्रम दर्शनमोहनीयके क्षय होने में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने तक जानना चाहिए। उसके बाद आवलिमात्र काल तक उदयमें प्रविशमान अनुभागसत्त्वकी अनुसमय अपवर्तना होती है।
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