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क्षायिकसम्यक्त्वप्ररूपणाअधिकारः॥२॥
जयंत्यहं द्विधूतांगसूर्युपाध्यायसाधवः ।
लोकेऽस्मिन् भव्यलोकानां शरणोत्तममंगलं ॥१॥ अथ क्षायिकसम्यग्दर्शनोत्पत्तिसामग्री प्ररूपयति
दसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो । तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥ ११० ।। दर्शनमोहलपणाप्रस्थापकः कर्मभूमिजो मनुष्यः ।
तीर्थकरपादमूले केवलिश्रुतिकेवलिमूले ॥११०॥ सं० टी०-यो मनुष्यः पंचदशकर्मभूमिसमुत्पन्नः पर्याप्तः तीर्थंकरपादमूले इतरकेवलिश्रुतकेवलिनोः पादमले वा सन्निहितः स एव दर्शनमोहस्य क्षपणप्रस्थापको भवति । प्रस्थापकः प्रारंभक इत्यर्थः। अन्यत्र दर्शनमोहक्षपणाकारणविशुद्धिविशेषाघटनात् । अधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयादारभ्य मिथ्यात्वमिश्रप्रकृत मपवर्त्य सम्यक्त्वप्रकृतौ संक्रम्यते यावत्तावदंतर्मुहूर्तकालं दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापक इत्युच्यते ॥ ११० ॥
अथ क्षायिक सम्यक्त्व प्ररूपणा लिखिए है
स० चं-जो मनुष्य कर्मभूमिविर्षे उपज्या तीर्थकर वा अन्य केवली वा श्रुतकेवलीके पादमूलविर्षे तिष्ठता होइ सोई दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कहिए प्रारंभक हो है जातें अन्यत्र असा विशुद्ध ज्ञान न हो है। अधःकरणका प्रथम समयस्यों लगाय यावत् मिथ्यात्व मिश्रमोहनीका द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृतिरूप होइ संक्रमण करै तावत् अंतर्मुहूर्तकाल पर्यंत दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारंभक कहिए ॥ ११० ॥
विशेष—यहाँ कर्मभूमिज मनुष्यको दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापक बतलाया गया है सो उससे, जो जीव दुःषमा, अतिदुःषमा, सुषमसुषमा और सुषमा इन चार कालोंमें उत्पन्न हुए मनुष्य हैं वे दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ न कर शेष दो कालोंमें उत्पन्न हुए मनुष्य ही दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं; ऐसा आशय यहाँ ग्रहण करना चाहिए । सुषम-दुःषमा कालमें उत्पन्न हुए मनुष्य दर्शनमोहनीयको क्षपणाका प्रारम्भ कैसे करते हैं इस शंकाका समाधान करते हुए धवला पु० ६ पृ० २४७ में बतलाया है कि वर्धनकुमार आदि जीव एकेन्द्रियोंमेंसे आकर मनुष्य हुए थे और उन्होंने उसो भवमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा की थी। इससे विदित होता है कि सुषम-दुःषमा कालमें उत्पन्न हुए मनुष्य भी दर्शनमोहनीयकी क्षपणा का प्रारम्भ करते हैं ।
१. दंणशमोहपट्ठवगो कम्भभूसिजादो दु । णियमा मणुसगदीए णिट्टवगो चावि सव्वत्थ ॥ क. पा. गा० ११०, जयध० भा० १३, पृ० २ । ध० पु० ६, पृ० २४५ । दंसणमोहणीयं कम्मं खवेदमाढवेतों कम्हि आढवेदि ? अड्ढाइज्जदीव-समुद्देसु पण्णारसकम्गभूमीसु जम्हि जिणा केवली तित्थयरा तम्हि आढवेदि त्ति । जी० चू०८, सू० ११, पृ० २४३ ।
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