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उत्कर्षणविचार
अथवावलिगतवरस्थितिप्रथमनिषेके वरस्य बंधस्य । द्वितीयनिषेकप्रभृतिषु निक्षिप्ते ज्येष्ठनिक्षेपः ॥६५॥
सं० टी० -अथवा आचार्यांतरव्याख्यानमतभेदात उत्कृष्टस्थितिबंधस्य बंधावलिमतिबाह्य प्रथमनिषके उत्कृष्टे तात्कालिकबध्यमानस्योत्कृष्टस्थितिसमयप्रबद्धस्य द्वितीयनिषेकप्रभृतिषु अग्रे अतिस्थापनावलिमुक्त्वा
निक्षिप्ते समयाधिकावल्याबाधारहिता उत्कृष्टकर्मस्थितिरुत्कृष्टनिक्षेपो भवति । ४।४। विविक्षितसमयप्रबद्धस्य
उ नि । क-आ चरमनिषेकस्य सर्वा स्थितिय॑क्तिस्थितिः तस्याधो निषेकाणां समयोनद्विसमयोनादिस्थितयो व्यक्तिस्थितयः । प्रथमादिनिषेकाणां सर्वा स्थितिः शक्तिस्थितिरित्यभिप्रायः ।।६५।।
स० चं०-अथवा केई आचार्यनिके मतकरि निक्षेपणविर्षे जैसे निरूपण है। उत्कृष्ट स्थितिबंध बांध्या था ताकी बंधावलोकौं गमाइ पीछे ताका प्रथम निषेकका उत्कर्षण करि ताके द्रव्यकौं तिस उत्कर्षण करनेके समयविर्षे बंध्या जो उत्कृष्ट स्थिति लीए समयप्रबद्ध ताका द्वितीय निषेकका आदि दैकरि अंतविर्षे अतिस्थापनावलीमात्र निषेक छोडि सर्व निषेकनिवि निक्षेपण कीया तहां एक समय अर एक आवली अर बंधी स्थितिका आबाधाकाल इन करि हीन उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप हो है। इहां बंधी जो उत्कृष्ट स्थिति ताविष आबाधा कालविर्षे तौ निषेक रचना नाही अर प्रथम निषेकविर्षे द्रव्य दीया नाही अर अंतविर्षे अतिस्थापनावलीविर्षे द्रव्य न दीया तातै पूर्वोक्त प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप जानना। इहां पूर्वोक्त प्रकार अंक संदृष्टिकरि कथन जानना ॥ ६५ ॥
विशेष—यहाँ बद्धकर्मके किस निषेककी कितनी शक्तिस्थिति और कितनी व्यक्तिस्थिति होती है इसका स्पष्टीकरण किया गया है। सो यह प्रत्येक कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा समझना चाहिए। उसमें भी प्रथमादि निषेकोंको शक्तिस्थितिका विचार करते समय उत्कर्षणके नियमानुसार शेष रही शक्तिस्थिति तक ही प्रत्येक निषेकका उत्कर्षण होता है।
उक्करसहिदिव'धे आबाहागा ससमयमावलियं । ओदरिय णिसेगेसुक्कड्डेसु अवरमावलियं ॥६६।।
ट्रिदिट्रिदपदेसग्गमोकड्डिय उदयावलिबाहिरे णिसिंचदि । एत्थ विदियट्टिदीए ओकड्डिय णिक्खित्तदव्वमहिकयं, पढमसमयणिसित्तस्स तदणंत्तरसमए उदयावलियभंतरपवेसदसणादो । तदो विदियसमए उक्कस्ससंकिलेसवसेण उक्कस्सट्रिदि बंधमाणो विवक्खियपदेसमुक्कड्डतो आबाहाबाहिरपढमणिसेयप्पहडि ताव णिक्खिवदि जाव समयाहियावलियमेत्तण अग्गद्विदिमपत्तो त्ति । कुदो एवं ? तत्तो उवरि तस्स विवक्खियकम्मपदेसस्स सत्तिद्विदीए असंभवादो। तम्हा उक्करसाबाहाए समयुत्तरावलियाए च ऊणिया कम्मट्टिदी कम्मणिक्खेवो त्ति सिद्धं । ....... जयध० भा० १२ पृ० २५६ ।
१. जाओ बज्झंति द्विदीओ तासि द्विदीणं पुव्वणिबद्धट्ठिदिमहिकिच्च णिव्वाघादेण उक्कड्डणाए अइ- . च्छावणा आवलिया । क० चू०, जयध० भा० १२ पृ० २५३ ।
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