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लब्धिसार
सं० टी०-ततश्चरमस्थितिकांडकोत्करणकालादंतरकरणकालस्तदात्वस्थितिबंधकालश्चान्योन्य समानी विशेषाधिको २ २।५ । ४ । ५ विशेषः पूर्वकालस्य संख्येयभागः । पदानि ६ । ततः प्रथमः अपूर्वकरण
प्रथमसमयारब्धस्थितिखंडोत्करणकालस्तदात्वस्थितिबंधकालश्च द्वौ समौ विशेषाधिको २२।५ । ४।५ । ५
विशेष: पूर्वस्य संख्यातकभागः । पदानि ८ । ततो गुणपूरणकालः संख्येयगुणः २ । १।५ । ४ । ५ । ५ । ४
४ । ४ । ४ पदानि ९ । ततो गुणश्रेणिशीर्षः संख्येयगुणः २ २।५ । ४ । ५ । ५ । ४ । ४ । पदानि १० । ततः प्रथम
४। ४ । ४ ण:-२१।५।४।५।५।४। ४ । ४ । पदानि ११ । ततो दर्शनमोहोपशमनकालो
४। ४ । ४ विशेषाधिकः-२२।५ । ४।५।५।४। ४ । ४ । ४ विशेषः समयोनद्वयावलिमात्रः । पदानि १२ ॥९४॥
४। ४ । ४
स० चं०-तातें ताहीका संख्यातवां भागमात्र विशेषकरि अधिक अंतरकरणकाल अर तहाँ अंतरकरण करते हो संभवता स्थितिबंधापसरण काल ए दोऊ परस्पर समान हैं।६। तातै ताहोका संख्यातवां भागमात्र विशेषकरि अधिक अपूर्वकरणके पहिले समय जिनिका प्रारंभ भया असे स्थितिकांडकोत्करण काल अर स्थितिबंधापसरण काल ए नोऊ परस्पर समान हैं ।।८।। तातै संख्यातगुणा गणसंक्रमपूरण करनेका काल है ॥९॥ तातें संख्यातगुणा गुणश्रेणिशीर्ष है ॥१०॥ ता संख्यातगुणा प्रथम स्थितिका आयाम है ॥११॥ तातें समय घाटि दोय आवलीमात्र विशेषकरि अधिक दर्शनमोहके उपशमावनेका काल है ॥१२॥
विशेष—इस अल्पबहुत्वमें दसवाँ स्थान गुणश्रेणिशीर्ष है सो इससे अन्तर सम्बन्धी अन्तिम फालिका पतन होते समय गुणश्रेणिनिक्षेपके अग्राग्रसे संख्यातवें भागका खंडन कर जो फालिके साथ निजीर्ण होनेवाला गुणश्रेणिशीर्ष है उसका ग्रहण करना चाहिए। तथा प्रथम जो उपशामक कालको एक समय कम दो आवलि कालप्रमाण अधिक बतलाया है सो उसका कारण यह है कि अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव जो मिथ्यात्वका नया बन्ध करता है उसका एक समय तो प्रथम स्थितिके साथ ही गल जाता है, इसलिए प्रथम स्थितिके इस अन्तिम समयको छोड़कर उपशमसम्यग्दृष्टिके कालके भीतर एक समय कम दो आवलिप्रमाण काल ऊपर जाने तक उस नवकबन्धकी उपशमना समाप्त होती है, यही कारण है कि प्रथम स्थितिसे उपशमनाका काल उक्त परिमाणमें विशेष अधिक कहा है।
अणियट्टीसंखगुणो णियट्टीगुणसेढियायदं सिद्धं । उवसंतद्धा अंतर अवरवराबाह संखगुणियकमा ॥९॥
१. अणियट्टिअद्धा संखेज्जगुणा । अपुव्वकरणद्धा संखेज्जगुणा । गुणसे ढिणिक्खेवो विसेसाहिओ । उवसंतअद्धा संखेज्जगुणा । अंतरं संखेज्जगुणं । जहण्णिया आबाहा संखेज्जगुणा । उक्कस्सिया आबाहा संखेज्जगुणा । क० चू०, जयध० भा० १२, पृ० २९०-२९३ ।
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