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लब्धिसार
उसकी अपेक्षा यहाँ अन्तरकरणके स्वरूप पर प्रकाश डाला जाता है। मिथ्यादष्टि जीवके अनिवृत्तिकरण कालका बहुभाग जाकर एक भाग शेष रहने पर यह अन्तरकरणकी विधिका प्रारम्भ होता है । स्पष्टीकरण इस प्रकार है-यतः यह मिथ्यात्व गुणस्थानमें उदयवाली प्रकृति है, अतः उसके उदय समयसे लेकर ऊपरके अन्तमुहूर्तके कालके जितने समय हों उतने निषेकोंको छोड़कर उनसे ऊपरके अन्तमुहूर्त प्रमाण अन्य निषेकोंका उत्कर्षण कर उनका यथासम्भव उन निषकोंसे ऊपरके निषेकोंमें और अपकर्षण कर उन निषेकोंसे नीचेके निषेकोंमें निक्षेप कर उनका पूरी तरहसे अभाव करना अन्तरकरण कहलाता है । यहाँ जिन निषेकोंका अभाव किया उनसे नीचेकी स्थितिका नाम प्रथम स्थिति है और ऊपरके निषकोंका नाम द्वितीय स्थिति है । यह जीव जिस समय अन्तरकरण विधिको प्रारम्भ करता है उस समयसे स्थितिकाण्डकघात अनुभागकाण्डक घात और स्थितिबन्ध ये तीनों कार्य विशेष नये प्रारम्भ होते हैं । अथांतरकरणकालपरिमाणं प्ररूपयति
एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरस्स णिप्पत्ती । अंतोमुहुत्तमेत्तं अंतरकरणस्स अद्धाणं ।। ८५॥ एकस्थितिखंडोत्करणकाले अंतरस्थ निष्पत्तिः । अंतर्मुहूर्तमात्रमंतरकरणस्याध्वा
॥८५॥ सं०टी०-एकस्थितिखंडोत्करणकाले अंतरकरणस्य समाप्तिर्भवति स चांतरकरणस्याध्वा काल: अंतर्मुहूर्तमात्र एव २१।३
४।४
अब अन्तरकरण करने में लगनेवाले कालका निर्देश करते हैं
स० चं०–एक स्थितिखंडोत्करण कालविर्षे अन्तरकी निष्पत्ति हो है। एक स्थितिकांडकोत्करणका जितना काल तितने कालकरि अंतर करिए है याकौं अंतरकरणकाल कहिए है सो यह अंतर्मुहूर्तमात्र है ।। ८५ ।। अथान्तरायामप्रमाणं तन्निषेकनिक्षेपस्थापनं चाख्याति
गुणसेढीए सीसं तत्तो संखगुण उवरिमठिदि च । हेटठुवरिम्हि य आबाहुज्झिय बंधम्हि संछुहदि ॥ ८६ ।। गुणश्रेण्याः शीण ततः संख्यगुणां उपरितनस्थितिं च ।
अधस्तनोपरि चाबाधोज्झित्वा बंधे संछुभति ॥ ८६ ॥ सं० टी०-गुणश्रेण्यायामकथनकाले अपूर्वानिवृत्तिकरण कालद्वयादधिकं यदनिवृत्तिकरणकालसंख्यातकभागमात्रमित्युक्तं, तदस्मिन् प्रकरणे गुणश्रेणिशीर्षमित्युच्यते २ १।१ । ततः संख्येयगुणा उपरितनस्थितिषु
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१. जा तम्हि ट्रिदिबंधगद्धा तत्तिएण कालेण अंतरं करेमाणो गणसेढिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागं खंडेदि । क० चू०, जयध० भा० १२, पृ० २७३ । ध० पु० ६, पृ० २३२ ।
२. गुणसेढिसीसयादो संखेज्जगुणाओ उवरिमट्ठिदीओ खंडेदि, अंतरटुं तत्थुक्किणपदेसग्गं विदियट्टिदीए आबाधूणियाए बंधे उक्कड्डुदि, पढमट्ठिदीए च देदि, अंतरट्टिदीसु हंद णियमा ण देदि त्ति । ध० पु० ६, पृ० २३२ । जयध० भा० १२, पृ० २७४ ।
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