________________
५४
लब्धिसार ।
कि उदयवाली प्रकृतियोंकी उदयावलिसम्बन्धी निषेकोंमें निक्षेप करनेके लिये अपने योग्य द्रव्यमें असंख्यात लोकोंका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने द्रव्यका अपकर्षण करना चाहिए। किन्तु जयधवला पु० १२ पृ० २६५ में इसका विशेष खुलासा करते हुए यह बतलाया है कि अपने योग्य डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध में अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उसमें असंख्यात लोकोका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने द्रव्यको गोपूच्छाकाररूपसे तो उदयावलिमें निक्षिप्त करना चाहिए । शेष बहभागप्रमाण द्रव्यको गणश्रेणि निक्षेपके विधानानुसार निक्षिप्त करना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है । लब्धिसारके अगले कथनसे भी यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।
ओक्कड्डिदइगिभागे पल्लासंखेण भाजिदे तत्थ । बहुभागमिददव्वं उव्वरिल्लठिदीसु णिक्खिवदि ।। ६९ ॥ अपकर्षितकभागे पल्यासंख्येन भाजिते तत्र ।
बहुभागमिदं द्रव्यमुपरितनस्थितिषु निक्षिपति ॥ ६९ ॥ सं० टी०-सर्वकर्मसत्वमिदं स a १२आयुर्द्रव्यस्य स्तोकत्वेन किंचिदूनं कृत्वा शेणे सप्तभिर्भक्ते मोहनीबद्रव्यं भवति । तस्मिन्ननंतेन खंडिते एकभागः मिथ्यात्वषोडशकषायरूपसर्वधातिद्रव्यं भवति । तस्मिन् सप्तदशभिर्भक्त मिथ्यात्वप्रकृतिद्रव्यमिदं स १२-अस्मिन् गुणश्रेणिनिर्जरार्थमपकर्षणभागहारेण भक्ते तदेक
७। ख । १७
भागोऽयं स a १२-तबहभागः स्वस्थितिरचनायामेव तिष्ठति
७।ख।१७ओ
स a १२-ओ पुनरपकृष्टैक ७ । ख १७ । ओ
भागपल्यासंख्येयभागेन खंडिते तद्बहभागोऽयं स ।
१२-प इदं द्रव्यं गुणश्रेण्या उपरितनस्थितिष
७ । ख । १७ । ओ
प
निक्षिपति ।। ६९ ॥
___ स० चं०-अपकर्षण भागहारका भाग दीएं तहां एक भागकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ तहां बहुभाग उपरितन स्थितिविर्षे निक्षेपण करें हैं । इहां औसा जानना-कर्मके सत्तारूप स्थितिके निषेक तिनिविर्षे वर्तमान समयतें लगाय आवलोकालविर्षे उदय आवने योग्य निषेक तिनिविर्षे जो द्रव्य दोया ताकौं उदयावलीविर्षे दीया कहिए। बहुरि ताके ऊपरि गुणश्रेणि आयाम प्रमाण जे निषेक तिनिविर्षे जो द्रव्य मिलाया सो गुणश्रेणि विर्षे दोया कहिए। बहुरि ताके ऊपरि अंतके अतिस्थापनावलोमात्र निषेक छोडि सर्व निषेकनिविषै जो द्रव्य दीया सो उपरितन स्थितिविर्षे दीया द्रव्य कहिए । अब इहां मिथ्यात्वके उदाहरणकरि विधान कहिए है
___ सर्व कर्मका सत्त्वरूप द्रव्य है सो किंचिदून द्वयर्धगुणहानिगणित समयप्रबद्धप्रमाण है तामें आयुका द्रव्य घटावनेकौं किंचित ऊन करि अवशेषकों सात मूल प्रकृतिनिका विभागके अर्थि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org