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स्थितिबन्धापसरण आदिका विचार
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सं० चं०
- बहुरि स्थितिबंधापसरण है सो अधःप्रवृत्तकरणका प्रथम समय लगाय तिस गुणसंक्रमण पूरण होने का काल पर्यंत हो है । यद्यपि प्रायोग्य लब्धितें ही स्थितिबंधापसरण हो है तथापि प्रायोग्य लब्धिकैं सम्यक्त्व होनेका अनवस्थितपना है, नियम नाहीं, तातैं ग्रहण न कया । बहुरि स्थितिबंधापसरण काल अर स्थितिकांडकोत्करण काल ए दोऊ समान अंतर्मुहूर्तमात्र हैं ॥ ५४ ॥
विशेष—करणपरिणामों के कारण उत्तरोत्तर विशुद्धि में वृद्धि होती जानेके कारण अपूर्वक रणसे लेकर जिस प्रकार एक-एक अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर एक-एक स्थितकाण्डकका उत्कीरण नियमसे होने लगता है उसी प्रकार उत्तरोत्तर स्थितिबन्ध में भी अपसरण होने लगता है । इन दोनोंका काल समान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । उसमें भी प्रथम स्थितिकाण्डकघात और प्रथम स्थितिबन्धासरण में जितना काल लगता है उससे दूसरे आदि स्थितिकाण्डकघात और स्थितिबन्धापसरणोंमें उत्तरोत्तर विशेष हीन काल लगता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्थितिकाण्डकघात और स्थितिबन्धा पसरणोंका एक साथ प्रारम्भ होता है और एक साथ समाप्ति होती है । प्रकृत में उपयोगी विशेष व्याख्यान टीकामें किया ही है ।
गुणश्रेणिका स्वरूपनिर्देश
गुणसे दीदीहत्तम पुब्वदुगादो दु साहिय होदि । गलिदवसेसे उदयावलिबाहिरदो दु णिक्खेवो || ५५ ।। गुणश्रेणिदीर्घत्वमपूर्वद्विकात् तु साधिकं भवति । गलितावशेषे उदयावलिबाह्यतस्तु निक्षेपः ॥ ५५ ॥
सं० टी०
- गुणश्रेणिदीर्घत्वमपूर्वकरणानिवृत्तकरणकालाभ्यां साधिकं भवति २ २ गुणश्रेणिकरणार्थ
मष्टद्रव्यस्य निक्षेप योग्यस्थित्यायाम इत्यर्थः । अधिकप्रमाणं पुनरनिवृत्तिकरणकालसंख्यातैकभागमात्रं २ उदयावलिवाह्यप्रथमसमयादारभ्य गलितावशेषे गुणश्रेण्यायामे अपकृष्टद्रव्यस्य निक्षेपो भवति ।। ५५ ।।
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सं० चं०—गुणश्रेणिका दीर्घत्व कहिए निषेक निषेकनिका प्रमाणमात्र आयाम सो अपूर्व - करण अनिवृत्तिकरण के कालतें साधिक है । सो अधिकका प्रमाण अनिवृत्तिकरण कालके संख्यातवें भागमात्र जानना । सो यहु गुणश्रेणि आयाम गलितावशेष है । समय व्यतीत होतें यह गुण
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१. तम्हि चेवापुग्वकरणस्स पढमसमए आउगवज्जाणं गुणसेढिणिक्खेवो वि आढत्तोत्ति भणिदं होइ । किमट्टमाउगस्स गुणसेढिणिवखेवो णत्थि त्ति चे ? ण, सहावदो चेव, तत्थ गुणसे ढिणिक्खेवपवृत्तीए असंभवादो । सोवण गुणढणिक्खेवो केत्तिओ होइ त्ति पुच्छाए अणियट्टिकरणद्धादो अपुव्यकरणद्धा दो च विसेसाहियो ति fort | एत्थत अपुवाणियट्टिकरणद्धाणं समुदिदाणं पभाणमंतोमुहुत्तमेतं होइ । तत्तो विसेसाहिओ एस्स सेवायामो त्ति वृत्तं होइ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? अणियदृअद्धाए संखेज्जदिभागमेत्तो । णवरि गलिदसे साया मेण णिसिंचदित्ति वत्तव्वं । जयध० भा० १२, पृ० २६४-२६५ ।
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