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अधःप्रवृत्तकरण के परिणामोंका विचार
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विशेष - प्रथम समयवर्ती जीवके परिणामोंकी उपरितन समयवर्ती जीवोंके जहाँ तकके परिणामों के साथ समानता पाई जाती है वहीं तकके परिणामखंडों में अनुकृष्टि रचना बनती है। निर्वर्गणाकाण्डक भी उसीका नाम है । यह प्रथम समयके परिणामों की अपेक्षा कथन है । द्वितीयादि समयोंकी अपेक्षा भी इन दोनोंका इसीप्रकार विचार कर लेना चाहिए। एक निर्वर्गणाकाण्डक अधःप्रवृत्तकरण के कालके संख्यातवें भाग कालप्रमाण होता है ।
पडिसमयगपरिणामा निव्वग्गणसमयमेत्तखंडकमा |
अहियक्रमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥ ४४ ॥
प्रतिसमयगपरिणामा निर्वर्गणसमयमात्रखंडक्रमाः ।
अधिकक्रमा हि विशेषे मुहूर्तांतहि प्रतिभागः ॥ ४४ ॥
सं० टी० प्रतिसमयगाः परिणामाः निर्वर्गणसमयमात्रखंडाः कृताः अधःप्रवृत्तकरणकालसंख्यातैकभागमात्रखंडाः कृता इत्यर्थः । ते च संख्यातावलिसमयमात्रा एव जघन्यखंडात् आ उत्कृष्टखंडं विशेषाधिका गच्छति । तद्विशेषे साध्ये आदिखंस्थांतर्मुहूर्तमात्रः प्रतिभागहारः । सोऽपि पूर्ववदानेतव्यः ॥ ४४ ॥
स० चं --- समय समय संबंधी परिणामनिविषै निर्वर्गणकांडक समान खंड कीजिए, ते भी प्रथम खंड द्वितीयादि खंड क्रमतें विशेष जो समानप्रमाण लीए चय ताकरि बधता हैं । तहाँ प्रथम खंड अंतर्मुहूर्तका भाग दीए विशेषका प्रमाण आवै है ।। ४४ ।।
पडिखंडग परिणामा पत्तेयमसंखलोगमेत्ता हु
लोयाणमसंखेज्जा छट्टाणाणी विसेसे वि े ॥ ४५ ॥ प्रतिखंडगपरिणामाः प्रत्येकमसंख्य लोकमात्रा हि । लोकानाम संख्येयाः षट्स्थानानि विशेषेऽपि ॥ ४५ ॥
सं० टी० - प्रतिनियताः खंडा जघन्य मध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नाः तद्गताः परिणामाः विशुद्धिपरिणामविकल्पाः प्रत्येकमेकस्मिन्नेकस्मिन् खंडे असंख्येयलोकमात्राः संति । अनन्तभागवृद्धिरसंख्यात भागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धि: संख्यातगुणवृद्धिरसंख्यातगुणवृद्धिरनंत गुणवृद्धिरिति षट्स्थानान्येकस्मिन् खंडे असंख्येयलोकमात्राणि संत | अनुकृष्टिविशेषेऽप्यसंख्येयलोकमात्राणि षट्स्थानानि भवन्ति ।। ४५ ।।
स० चं०--तहां एक एक खंडविषै जघन्य मध्यम उत्कृष्टता लीए विशुद्ध परिणामनिके भेद असंख्यात लोकमात्र हैं । तहां जैसे गोम्मटसारका ज्ञानाधिकारविषै पर्याय समासविषै षट्स्थानपतित वृद्धिका अनुक्रम कहया है तैसें इहां एक एक खंडविषे वा एक एक अनुकृष्टि विशेषविष भी असंख्यात लोकमात्र बारह षट् स्थानपतित वृद्धि संभवें हैं ॥। ४५ ।।
१. विवक्खिय समयपरिणामाणं जत्तो परमणुकट्टिवोच्छेदो तं निव्वग्गणकंडयमिदि भष्णदे | संपहिएदाणि खंडण कोणं सरिसाणि आहो विसरिसाणि त्ति पुच्छिदे सरिसाणि ण होंति, विसरिसाणि चेवेत्ति घेत्तव्वं, अणणं पेक्खिदूण जहाकममेदेसि विसेसाहियकमेणावद्वाणदंसणादो । एसो विसेसो अंतोमुहुत्तपडिभागिओ । जयध० पु० १२, पृ० २३६ । ध० पु० ६, पृ० २१५ ।
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२. अधापवत्तकरण पढमसमय पहुडि जाव चरिमसमओ त्ति ताव पादेक्कमेक्केक्कम्मि समये असंखज्जलोगमेत्ताणि परिणामद्वाणाणि छत्रड्डिकमेणावट्टिदाणि ट्ठिदिबंधोसरणादीणं कारणभूदाणि अस्थि । जयध० पु० १२, पृ० २३४ । ६० पु० ६, पृ० २१४ ।
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