________________
30
लब्धिसार
पढमे चरिमे समये पढमं चरिमं च खंडमसरित्थं । सेसा सरिसा सव्वे अहव्वंकादिअंतगया ॥ ४६ ॥
प्रथम चरमे समये प्रथम चरमं खंडमसदृशम् ।
शेषाः सदृशाः सर्वे अष्टोवंकाद्यंतगताः ॥४६॥ सं० टी० -अधःप्रवृत्तकरणकालस्य प्रथमसमये प्रथमखंडं ३९, चरमसमये चरमखंडं च ५७ । उपरित. नाधस्तनसमयखंडैरसदृक्षमेव, शेषाणि द्वितीयखंडादीनि द्विचरमसमयखंडपर्यंतानि सर्वाण्यपि खंडान्युपरितनाधस्तनसमयवतिखंडैः सदशानि भवन्ति । तानि प्रथमादिचरमपर्यंतानि सर्वाण्यपि खंडान्यष्टांकादीनि उर्वकांतानि भवंति, षट्स्थानानामादिरष्टांकः अनंतगुणवृद्धि रूपः अन्त उर्वकः अनन्तभागवृद्धिरूप इति वचनात् ॥ ४६॥
सं० चं०-प्रथम समयका प्रथम खंड अंत समयका अंत खंड ए तौ कोऊ खंडनिके समान नाहीं, अवशेष सर्व खंड अन्य खंडनिकरि यथायोग्य समानता धरै हैं। तहां खंडनिविर्षे जो परिणामपुज कह्या तोहिंविर्षे पहिला परिणाम तौ अष्टांक कहिए। पूर्व परिणामतें अनंतगुणा वृद्धिरूप है । अर अंतका परिणाम ऊर्वंक कहिए पूर्व परिणामतें अनंतभाग वृद्धिरूप है, जातै षट्स्थाननिकी आदि तौ अष्टांक अर अत ऊर्वक कह्या है ।। ४६ ॥
विशेष-पिछली गाथाके विशेषार्थमें हम अक संदष्टि दे आये हैं। उसे देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम समयका प्रथम खण्ड और अन्तिम समयका अन्तिम खण्ड अन्य किसी खण्डके सदश नहीं हैं। इनके अतिरिक्त सब समयोंके अन्य सब परिणाम खण्ड यथा सम्भव सदृश हैं।
चरिमे सव्वे खंडा दुचरिमसमओ त्ति अवरखंडाए । असरिसखंडाणोली अधापवत्तम्हि करणम्हि ॥ ४७ ॥
चरमे सर्वे खंडा द्विचरमसमय इति अवरखंडैः ।
असदृशखंडानामावलिरधःप्रवृत्ते करणे ॥४७॥ सं० टी०-अधःप्रवृत्तकरणकाले चरमसमयवर्तीनि जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि सर्वाण्यपि प्रथमसमयादिद्विचरमसमयपर्यंतवर्तीनि जवन्यानि च खंडानि अंकुशाकारपंक्तिगतानि उपरि सादृश्याभावादसदृशानीत्युच्यन्ते ॥ ४७ ॥
स० चं-अधःप्रवृत्त करण कालविर्षे अंत समयसंबंधी तौ सर्व खंड अर प्रथम समय तें लगाय द्विचरम समय पर्यंतका प्रथम खंड हैं ते तिनिके ऊपरिके समयसंबंधी जे सर्व खंड तिनितें समान नाहीं तातें असदृश हैं ।। ४७ ।।
विशेष--अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर उपान्त्य समय तकके सब प्रथम खण्डोंका अपनेसे ऊपरके समयोंके अन्य किसी खण्डके साथ सादृश्य नहीं है। इसीप्रकार अन्तिम समयके सब परिणाम खण्ड भी उनसे ऊपर अन्य परिणाम खण्डोंका अभाव होनेसे विसदृश ही हैं। अतः इन परिणाम खण्डोंकी अंकुशाकार रचना इस प्रकार होती है
१. ध० पु० ६, १० २१६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org