________________
आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक ३१
की मान्यता में एक के भोजन करने पर दूसरे की तृप्ति, एक के शयन करने पर सबका शयन, एक की मुक्ति होने पर सबकी मुक्ति होनी चाहिए, इस तरह समस्त व्यवहारों का भी सांकर्य हो जाएगा। मन और शरीर की पृथक्तों से भी व्यवस्था बिठाना दुष्कर है। सबसे बड़ा दोष तो इसमें यह है कि जीवों के संसार और मोक्ष की व्यवस्थाएँ, कर्मबन्ध और कर्ममोक्ष या कर्मक्षय की सारी व्यवस्थाएँ अस्त-व्यस्त हो जाएँगी।
इसलिए प्रत्येक संसारी प्राणी के शरीर के बाहर आत्मा की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती।
Station उपनिषद् में आत्मा को शरीरव्यापी बताते हुए कहा गया है - जिस प्रकार तलवार अपनी म्यान में और अग्नि अपने कुण्ड में ही व्याप्त होती है, उसी प्रकार आत्मा शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है । तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय, इन सब आत्माओं को शरीर प्रमाण बताया गया है। ' आत्मा के ज्ञानादि गुण, गुणी (आत्मा) के साथ ही रहेंगे
यह नियम है कि जहाँ गुण होंगे, वहीं गुणी रहेगा। जब आत्मा के ज्ञानादि गुण शरीर के बाहर उपलब्ध नहीं होंगे, तब गुणी आत्मा अपने गुणों के बिना वहाँ (शरीर के बाहर) कैसे रहेगा ? फिर एक अखण्ड आत्मा (जीव) द्रव्य कुछ भागों में सगुण और कुछ भागों में निर्गुण कैसे रह पाएगा? आत्मा के सर्वव्यापित्व का खण्डन गणधरवाद में भी भगवान महावीर द्वारा इन्द्रभूति गौतम के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वहाँ कहा गया है कि जैसे-घट के गुण घट से बाह्यदेश में उपलब्ध नहीं होते, अतः वह व्यापक नहीं; इसी प्रकार आत्मा के गुण भी शरीर से बाहर उपलब्ध नहीं होते, अतः वह शरीर प्रमाण ही है । अथवा जहाँ जिसकी 'उपलब्धि प्रमाणसिद्ध नहीं होती, यानी जो जहाँ प्रमाण द्वारा अनुपलब्ध है, वहाँ उसका अभाव मानना चाहिए। जैसे- भिन्नस्वरूप घट में पट का अभाव है। शरीर से बाहर संसारी आत्मा की अनुपलब्धि है, अतः शरीर से बाहर उसका भी अभाव मानना चाहिए। अतः जीव में कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बंध, मोक्ष, सुख-दुःख एवं संसार, ये सब तभी युक्तिसंगत होते हैं, जब उसे अनेक और देहव्यापी माना जाए।
१ (क) कौषीतकी उपनिषद् ४ / २०
(ख) तैत्तिरीय उपनिषद् १ / २
२ (क) जैनदर्शन ( डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) पृ. १४४
(ख) गुणधरवाद गा. १५८७ (सानुवाद) पृ. २३
Jain Education International.
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org