Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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तृतीय अध्याय ।
८१
व्यतीत करना होता है इस लिये मेरे सच्चे सम्बन्ध में तो केवल आप ही हो, आप यदि मुझे दुःख भी हो तो भी कुछ अनुचित नहीं है, क्योंकि आप मेरे स्वामी हो और मैं आप की दासी हूं, हे नाथ ! आप को जो क्रोधजन्य (क्रोध से उत्पन्न होने वाला) दुःख हुआ उस का हेतु मैं ही मन्दभागिनी हूं परन्तु मैं अब प्रतिज्ञापूर्वक ( वादे के साथ ) आप से कहती हूं कि आगामी को ऐसा अपराध इस दासी से कदापि न होगा किन्तु सर्वदा आप के चित्त के अनुकूल ही सब व्यवहार होगा, क्योंकि जहां तक मैं आप से मान नहीं पाऊं वहां तक मेरा वस्त्रालंकार, व्यवहार, चतुराई, गुण और सुन्दरता आदि सब बातें एक कौड़ी की कीमत की नहीं हैं" इत्यादि ।
स्त्रियों को सोचना चाहिये कि जो स्त्री पति के गौरव को समझनेवाली, प्रे रखी और पति को प्रसन्न करनेवाली होगी - भला वह पति को प्यारी क्यों नगेगी अर्थात् अवश्य प्यारी लगेगी, क्योंकि शरीर प्रेम का हेतु नहीं है किन्तु गुण ही प्रेम के हेतु होते हैं, इस लिये पतिप्राणा ( पति को प्राणों के समान समझने वाली ) स्त्री को उचित है कि पति की आज्ञा के बिना कोई काम न करे और न पति की आज्ञा के बिना कहीं जावे आवे, सुज्ञ स्त्री को उचित है कि अपना विवाह होने से प्रथम ही पति की जितनी तहकीकात और चौकसी करनी हो उतनी कर ले किन्तु विवाह होने के पश्चात् तो यदि दैवेच्छा से रोगी, बहिरा, अन्धा, लंगड़ा, लुला, मूर्ख, कुरूप, दुर्गुण तथा अनेक दोषों से युक्त भी पति हो तो भी उस पर सच्चा भाव ( शुद्ध प्रेम ) रख कर उस की सेवा तन मन से करना चाहिये, यही स्त्रियों का सनातन धर्म है और यही स्त्रियों को उत्तम सुख की प्राप्ति कराने वाला है, किन्तु जो स्त्रियां विवाह के पश्चात् अपने पति के अनेक दोषों को प्रकट कर उस का अपमान करती हैं तथा उसको कुदृष्टि से देखनी हैं - यह उन ( स्त्रियों) की महाभूल है और वे ऐसा करने से नरक की अधि का रेणी होती है, इस लिये समझदार स्त्री को ऐसा कदापि नहीं करना चाहिये ।
देखो ! इस गृहस्थाश्रम में स्त्री और पुरुष इन दोनों में से पुरुष तो घर का राज है और स्त्री घर की कार्यवाहिका ( कारवार करनेवाली अर्थात् मन्त्रीरूप ) है और यह सब ही जानते हैं कि मन्त्री का अपने राजा के आधीन रह कर उस की सेवा करना और उस के हित का सदैव विचार करना ही परम धर्म है, बस यह बात स्त्री को अपने विषय में भी सोचना चाहिये, जैसे मन्त्री का यह धर्म है के अपने प्राणों को तज कर भी राजा के प्राणों की रक्षा करे उसी प्रकार इस संसार में स्त्री का भी यह परम धर्म है कि यदि अपना प्राण भी तजना पड़े तो अपने प्राणों को तज कर भी स्वामी के हित में इसे वचनामृत का स्मरण कर सती तारामती ने अपने का शरीर की छाया के समान संग न छोड़कर अपने
सदा तत्पर रहे, देखो ! प्राणप्रिय पति हरिश्चन्द्र धर्म का निर्वाह किया
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