Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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पञ्चम अध्याय ।
चल कर मोक्षमार्ग का साधन करे, इस प्रकार अपने कर्तव्य में तत्पर जो साधु (मुनिराज) हैं वे ही संसारसागर से स्वयं तरनेवाले तथा दूसरों को तारनेवाले और परम गुरु होते हैं, उन में भी उत्सर्गनय, अपवादनय, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार चल कर संयम के निर्वाह करनेवाले तथा ओघा, मुंहपत्ती, चोलपट्टा, चद्दर, पांगरणी, लोवड़ी, दण्ड और पान के रखनेवाले श्वेताम्बरी शुद्ध धर्म के उपदेशक यति को गुरु समझना चाहिये, इस प्रकार के गुरुओं के भी गुणस्थान के आश्रय से, नियण्ठे के योग से और काल के प्रभाव से समयानुसार उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य, ये तीन दर्जे होते हैं"।
"दूसरा श्रावकधर्म अर्थात् गृहस्थधर्म है-इस धर्म का पालन करनेवाले गृहस्थ कोई तो सम्यक्त्वी होते हैं जो कि नव तत्त्वोंपर याथातथ्यरूप से श्रद्धा रखते हैं, पाप को पाप समझते हैं, पुण्य को पुण्य समझते हैं और कुगुरु कुदेव तथा कुधर्म को नहीं मानते हैं किन्तु सुगुरु सुदेव और सुधर्म को मानते हैं अर्थात् अठारह प्रकार के दूषणों से रहित श्री वीतराग देव को देव मानते हैं और पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त गुरुओं को अपना गुरु मानते हैं तथा सर्वज्ञ के कहे हुए दयामूल धर्म को मानते हैं (ये सम्यक्त्वी श्रावक के लक्षण हैं), ये पहिले दर्जे के श्रावक हैं, इन के कृष्ण वासुदेव तथा श्रेणिक राजा के समान व्रत और प्रत्याख्यान (पञ्चक्खाण) किसी वस्तु का त्याग नहीं होता है"।
"दूसरे दर्जे के श्रावक वे हैं जो कि सम्यक्त्व से युक्त बारह व्रतों का पालन करते हैं, वे बारह व्रत ये हैं-स्थूल प्राणातिपात, स्थूलमृषावाद, स्थूलअदत्तादान, स्थूलमैथुन, स्थूलपरिग्रह, दिशापरिमाण, भोगोपभोग व्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिक व्रत, देशावकाशी व्रत, पौषधोपवास व्रत तथा अतिथिसंविभाग व्रत"।
"हे राजेन्द्र ! इन बारह व्रतों का सारांश संक्षेप से तुम को सुनाते हैं ध्यानपूर्वक सुनो-पूर्वोक्त साधु के लिये तो बीस विश्वा दया है अर्थात् उक्त साधु लोग बीस विश्वा दया का पालन करते हैं परन्तु गृहस्थ से तो केवल सवा विश्वा ही दया का पालन करना बन सकता है, देखो""गाथा-जीवा सुहुमा थूला, संकप्पा आरंभा भवे दुविहा ॥
सवराह निरवराह, साविक्खा चेव निरविक्खा ॥१॥ अर्थ-जगत् में दो प्रकार के जीव हैं-एक स्थावर और दूसरे त्रस, इन में से स्थावरों के पुनः दो भेद हैं-सूक्ष्म और वादर, उन में से जो सूक्ष्म जीव हैं उन की जो हिंसा होती ही नहीं है, क्योंकि अति सूक्ष्म जीवों के शरीर में बाह्य
१-प्रमादी और अप्रमादी आदि ॥ २-यह चौथे गुणठाणे के आश्रय से पहिले दर्जे के सम्यक्त्वी को श्रावक कहा है, पांचवें गुणठाणेवाले सम्यक्त्वयुक्त अनुवृत्ति होते हैं ।
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