Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
"धर्म की तीसरी परीक्षा तप के द्वारा की जाती है - वह ( तप ) मुख्यतया बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का है, इस लिये जिस धर्म में दोनों प्रकार का तप कहा गया हो वही मन्तव्य है" ।
"धर्म की चौथी परीक्षा दया के द्वारा की जाती है-अर्थात् जिस में एकेन्द्रिय जीव से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक जीवों पर दया करने का उपदेश हो वही धर्म माननीय है" ।
"हे नरेन्द्र ! इस प्रकार बुद्धिमान् जन उक्त चारों प्रकारों से परीक्षा करके धर्म ar अङ्गीकार ( स्वीकार ) करते हैं" ।
"श्री वीतराग सर्वज्ञ उस धर्म के दो भेद कहे हैं - साधुधर्म और श्रावकधर्म, इन में से साधुधर्म उसे कहते हैं कि संसार का त्यागी साधु अपने सर्वविरतिरूप पञ्च महाव्रतरूपी कर्त्तव्यों का पूरा वर्ताव करे" ।
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"उन में से प्रथम महाव्रत यह है कि सब प्रकार के अर्थात् सूक्ष्म और स्थूल किसी जीव को एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक को न तो स्वयं मन वचन काय से मारे, न मरावे और न मरते को भला जाने" ।
" दूसरा महाव्रत यह है कि मन वचन और काय से न तो स्वयं झूठ बोले, न बोलावे और न बोलते हुए को भला जाने" ।
" तीसरा महाव्रत यह है कि मन वचन और काय से न तो स्वयं चोरी करे, न करावे और, न करते हुए को भला जाने" ।
"चौथा महाव्रत यह है कि मन वचन और काय से न तो स्वयं मैथुन क सेवन करे, न मैथुन का सेवन करावे और न मैथुन का सेवन करते हुए को भला जाने” ।
" तथा पाँचवाँ महाव्रत यह है कि मन वचन और काय से न तो स्वयं धर्मोपकरण के सिवाय परिग्रह को रक्खे न उक्त परिग्रह को रखावे और न रखते हुए को भला जाने" ।
"इन पाँच महाव्रतों के सिवाय रात्रिभोजनविरमण नामक छठा व्रते है अर्थात् मन वचन और काय से न तो स्वयं रात्रि में भोजन करे, न रात्रि में भोजन करावे और न रात्रि में भोजन करते हुए को भला जाने” ।
"इन व्रतों के सिवाय साधु को उचित है कि- भूख और प्यास आदि बाईस परीषहों को जीते, सत्रह प्रकार के संयम का पालन करे तथा चरणसत्तरी और करणसत्तरी के गुणों से युक्त हो, भावितात्मा होकर श्री वीतराग की आज्ञानुसार
१ - " विचार कर देखा जाये तो इस व्रत का समावेश ऊपर लिखे व्रतों में ही हो सकता है अर्थात् यह व्रत उक्त व्रतों के अन्तर्गतही हैं ॥
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