Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
मायिक ( माया से बने हुए ) सर्प का भी उपचार हो सकता है ? लाचार होकर राजा आदि सर्व परिवारजन तथा नागरिक जन निराश हो गये और कुमार को मरा हुआ जान कर श्मशानभूमि में जलाने के लिये लेकर प्रस्थित ( रवाना ) हुए, जब कुमार की लाश को लिये हुए राजा आदि सब लोग नगर के द्वार पर पहुँचे उस समय रत्नप्रभ सूरि जी का शिष्य आकर उन से बोला कि -"यदि तुम हमारे गुरुजी का कहना स्वीकार करो तो वे इस मृत कुमार को जीवित कर सकते हैं" यह सुन कर वे सब लोग बोले कि - "यह कुमार किसी प्रकार जीवित हो जाना चाहिये, तुम्हारे गुरु की जो कुछ आज्ञा होगी वह अवश्य ही हम सब लोगों के शिरोधार्य होगी” ( सत्य है - गरजी और दर्दी सब कुछ स्वीकार करते हैं ) निदान शिष्य के कथनानुसार राजा आदि सब लोग कुमार की लाश को गुरुजी के पास ले गये, उस समय सूरिजीने राजा से कहा कि - "यदि तुम अपने कुटु स्वसहित मिथ्यात्व धर्म का त्याग कर सर्वज्ञ के कहे हुए दयामूल धर्म का ग्रहण करो तो हम कुमार को जीवित कर सकते हैं" राजा आदि सब लोगों ने गुरु जी का कहना हर्षपूर्वक स्वीकार कर लिया, फिर क्या था वही पोनिया सर्प आया और कुमार का सम्पूर्ण चिप खींच कर चला गया, कुमार आलस्य में भरा हुआ तथा जँभाइयों को लेता हुआ निद्रा से उठे हुए पुरुष के समान उठ खड़ा हुआ और चारों ओर देख कर कहने लगा कि - "तुम सब लोग मुझे इस जङ्गल में क्यों लाये" कुमार के इस वचन को सुन कर राजा आदि सब लोगों के नेत्रों में प्रेमाश्रु ( प्रेम के आँसू ) बहने लगे तथा हर्ष और आनन्द की तरङ्गे हृदय में उमड़ने लगीं, उपलदे राजा ने इस कौतुक से विस्मित और आनन्दित होकर तथा सूरि जी को परम चमत्कारी महात्मा जान कर अपने मुकुट को उतार कर उन के चरणों में रख दिया और कहा कि - " हे परम गुरो ! यह सर्व राज्य, कोठार, भण्डार, बरु मेरे प्राण तक सब कुछ आपके अर्पण है, दयानिधे ! इस मेरे सर्व राज्य को लेकर मुझे अपने ऋण से मुक्त कीजिये", राजा के ऐसे विनीत ( विनययुक्त ) वचनों को सुन कर सूरि बोले कि - " हे नरेन्द्र ! जब हम ने अपने पिता के ही राज्य को छोड़ दिया तो अब हम नरकादि दुःखप्रद राज्य को लेकर क्या करेंगे? इस लिये हम को राज्य से कुछ भी प्रयोजन नहीं है किन्तु हमें प्रयोजन केवल श्रीवीतराग भगवान् के कहे हुए धर्म से है, अतः तुम्हें श्रद्धालु देख हम यही चाहते हैं कि तुम भी श्रीवीतराग भगवान् के कहे हुए सम्यक्त्वयुक्त दयामूल धर्म को सुनो और परीक्षा करके उस का ग्रहण करो कि - जिस से तुम्हारा इस भव और पर भव में कल्याण हो तथा तुम्हारी सन्तति भी सदा के लिये सुखी हो, क्योंकि कहा है कि
बुद्धेः फलं तत्त्वविचारणं च, देहस्य सारो व्रतधारणं च ॥
अर्थस्य सारः किल पात्रदानं, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ॥ १ ॥
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