Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
नियमों का पालन करना तथा उस में स्वामिभक्ति का न दिखलाना हमारी कृतघ्नता नहीं तो और क्या है ?
सोचिये तो सही कि-यदि हम सब पर सुयोग्य राज्यशासनपूर्वक क्षत्रच्छाया न हो तो क्या कभी सम्भव है कि इस संसार में एक दिन भी सुखपूर्वक हम अपना निर्वाह कर सकें? कभी नहीं, देखिये ! राज्य तथा उस के शासनकर्त्ता जन अपने ऊपर कितनी कठिन से कठिन आपत्तियों का सहन करते हैं परन्तु अपने अधीनस्थ प्रजाजनों पर तनिक भी आँच नहीं आने देते हैं अर्थात् उन आई हुई आपत्तियों का ज़रा भी असर यथाशक्य नहीं पड़ने देते हैं, बस इसी लिये प्रजाजन निर्भय हो कर अपने जीवन को व्यतीत किया करते हैं ।
सारांश यही है कि- राज्यशासन के बिना किसी दशा में किसी प्रकार से कभी किसी का सुखपूर्वक निर्वाह होना असम्भव है, जब यह व्यवस्था है तो क्या प्रत्येक पुरुष का यह कर्त्तव्य नहीं है कि वह सच्ची राजभक्ति को अपने हृदय में स्थान दे कर स्वामिभक्ति का परिचय देता हुआ राज्यनियमों के अनुकूल सर्वदा अपना निर्वाह करे ।
वर्तमान समय में हम सब प्रजाजन उस श्रीमती न्यायशीला बृटिश गवर्नमेण्ट के अधिशासन में हैं कि जिस के न्याय, दया, सौजन्य, परोपकार, विद्योन्नति और सुखप्रचार आदि गुणों का वर्णन करने में जिह्वा और लेखनी दोनों ही असमर्थ हैं, इसलिये ऊपर लिखे अनुसार हम सब का परम कर्त्तव्य है कि उक्त गवर्नमेंट के सच्चे स्वामिभक्त बन कर उस के नियत किये हुए सब नियमों को जान कर उन्हीं के अनुसार सर्वदा वर्ताव करें कि जिस से हम सब
१ - कृतघ्न की कभी शुभ गति नहीं होती है; जैसा कि - धर्मशास्त्र में कहा है कि - मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य, स्त्रीघ्नस्य गुरुघातिनः ॥ चतुर्णी वयमेतेषां निष्कृतिं नानुशुश्रुम ॥ १ ॥ अर्थात् मित्र से द्रोह करनेवाले, कृतघ्न ( उपकार को न माननेवाले ), स्त्रीहत्या करनेवाले तथा गुरुघाती, इन चारों की निष्कृति (उद्धार वा मोक्ष ) को हम ने नहीं सुना है ॥ १ ॥ तात्पर्य यह है कि उक्त चारों पापियों की कभी शुभ गति नहीं होती है । २- यदि राज्यशासनपूर्वक क्षत्रच्छाया न हो तो एक दूसरे का प्राणघातक हो जावे, प्रत्येक पुरुष के सब व्यवहार उच्छिन्न ( नष्ट ) हो जावें और कोई भी सुखपूर्वक अपना पेट तक न भर पावे, परन्तु जब राज्यशासनपूर्वक क्षत्रच्छाया होती है अर्थात् शस्त्रविद्याविशारद राज्यशासक जब स्वाधीन प्रजा की रक्षा करते हुए सब आपत्तियों को अपने ऊपर झेलते हैं तब साधारण प्रजाजनों को यह भी ज्ञात नहीं होता है कि - किधर क्या हो रहा है अर्थात् सब निर्भय हो कर अपने २ कार्यों में लगे रहते हैं, सत्य है कि - " शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे, शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते" अर्थात् शस्त्र के द्वारा राज्य की रक्षा होने पर शास्त्रचिन्तन आदि सब कार्य होते हैं ॥ दूरदर्शी जन अपने कर्त्तव्यों का पालन किया करते हैं परन्तु अज्ञान जन लिया करते हैं ॥ ४ - राज्यशासन चाहे पञ्चायती हो चाहे आधिराजिक होना आवश्यक है ॥
३-ऐसी
दशा में विचारशील
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पैर पसार कर नींद हो किन्तु उस का
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