Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji

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Page 728
________________ ७१४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। ६-यदि कोई पुरुष खाली दिशा में आ कर प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-रोगी नहीं बचेगा, परंतु यदि खाली दिशा से आ कर भरी दिशा में बैठ कर (जिधर का स्वर चलता हो उधर बैठ कर ) प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-रोगी अच्छा हो जावेगा । ___७-यदि प्रश्न करते समय चन्द्र स्वर में जल तत्त्व वा पृथिवी तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि-रोगी के शरीर में एक ही रोग है तथा यदि प्रश्न करने के समय चन्द्र स्वर में अग्नि तत्त्व आदि कोई तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि-रोगी के शरीर में कई रोग मिश्रित ( मिले हुए) हैं। ८-यदि प्रश्न करते समय सूर्य स्वर में अग्नि, वायु अथवा आकाश तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि-रोगी के शरीर में एक ही रोग है परन्तु यदि प्रश्न करते समय सूर्य स्वर में पृथिवी तत्त्व वा जल तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि-रोगी के शरीर में कई मिश्रित ( मिले हुए) रोग हैं। ९-स्मरण रखना चाहिये कि-वायु और पित्त का स्वामी सूर्य है, कफ का स्वामी चन्द्र है तथा सन्निपात का स्वामी सुखमना है। १०-यदि कोई पुरुष चलते हुए स्वर की तरफ से आ कर उसी (चलते हुए) स्वर की तरफ खड़ा हो कर वा बैठ कर प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-तुम्हारा काम अवश्य सिद्ध होगा। ११-यदि कोई पुरुष खाली स्वर की तरफ से आ कर उसी (खाली) स्वर की तरफ खड़ा हो कर वा बैठ कर प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-तुम्हारा कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होगा। १२-यदि कोई पुरुष खाली स्वर की तरफ से आ कर चलते स्वर की तरफ खडा हो कर वा बैठ कर प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-तुम्हारा कार्य निस्सन्देह सिद्ध होगा। १-जिधर का स्वर चलता हो उस दिशा को छोड कर सर्व दिशायें खाली मानी गई हैं ।। २-इस शरीर में उदान, प्राण, व्यान, समान और अपान नामक पाँच वायु हैं, ये वायु विपरीत खान पान, उपरी कुपथ्य तथा विपरीत व्यवहार से कुपित होकर अनेक रोगों को उत्पन्न करते हैं (जिन का वर्णन चौथे अध्याय में कर चुके हैं ) तथा शरीर में पाचक, भ्राजक, रअक, आलोचक और साधक नामक पाँच पित्त हैं, ये पित्त चरपरे, तीखे, लवण, खटाई, मिर्च आदि गर्म चीजों के खाने से तथा धूप; अग्नि और मैथुन आदि विपरीत व्यवहार से कुपित हो कर चालीस प्रकार के रोगों को उत्पन्न करते हैं, एवं शरीर में अवलम्बन, क्लेश, रसन, स्नेहन और श्लेषण नामक पाँच कफ हैं, ये कफ बहुत मीठे, बहुत चिकने, बासे तथा थंढे अन्न आदि के खान पान से, दिन में सोना, परिश्रम न करना तथा सेज और बिछौनों पर सदा बैठे रहना आदि विपरीत व्यवहार से कुपित होकर बीस प्रकार के रोगों को उत्पन्न करते हैं, परन्तु जब विरुद्ध आहार और विहार से ये तीनों दोष कुपित हो जाते हैं तव सन्निपात रोग होकर प्राणियों की मृत्यु हो जाती है ॥ ३-पूर्ण वा सफल ॥ ४-विना सन्देह के वा वेशक ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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