Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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पञ्चम अध्याय ।
६३५
"अनिर्मितः केन न चापि दृष्टः । श्रुतोऽपि नो हेममयः कुरङ्गः । तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य । विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ॥१॥" अर्थात् सुवर्ण के हरिण को न तो किसी ने कभी बनाया है और न उसे कभी किसी ने देखा वा सुना ही है (अर्थात् सुवर्ण के मृग का होना सर्वथा असम्भव है) परन्तु तो भी रामचन्द्र जी को उस के लेने की अभिलाषा हुई (कि वे उसे पकडने के लिये उसके पीछे दौड़े) इस से सिद्ध होता है कि-विनाशकाल के आने पर मनुष्य की बुद्धि मी विपरीत हो जाती है ॥ १॥ बस यही वाक्य कर्मचन्द में भी चरितार्थ हुभा, देखो ! जब तक इन के पूर्व पुण्य की प्रबलता रही तब तक तो इन्हों ने उस के प्रभाव से अठारह रजबाड़ों में मान पाया तथा इन की बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर बीकानेर महाराज श्री रायसिंह जी साहब से मांग कर बादशाह अकबर ने इन को अपने पास रक्खा, परन्तु जब विनाशकाल उपस्थित हुआ तब इन की बुद्धि भी विपरीत हो गई अर्थात् उधर तो इन्हों ने ओसवालों के इतिहासों की बहियों को कुए में डलवा दिया (यह कार्य इन्हों ने हमारी समझ में बहुत ही बुरा किया) और इधर ये बीकानेर महाराज श्री रायसिंह जी साहब के भी किसी कारण से अप्रीति के पात्र बन गये, इस कार्य का परिणाम इन के लिये बहुत ही बुरा हुआ अर्थात् इन की सम्पूर्ण विभूति नष्ट हो गई, उक्त कार्य के फलरूप मतिभ्रंश से इन्हों ने अपने गृह में स्थित तमाम कुटुम्ब को क्षण भर में तलवार से काट डाला, (केवल इन के लड़के की स्त्री बच गई, क्योंकि वह गर्भवती होने के कारण अपने पीहर में थी) तथा अन्त में तलवार से अपना भी शिर काट डाला और दुर्दशा के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए, तात्पर्य यह है कि-इन के दुष्कृत्य से इन के घराने का बुरी तरह से नाश हुआ, सत्य है कि-बुरे कार्य का फल बुरा ही होता है, इन के पुत्र की स्त्री (जो कि ऊपर लिखे अनुसार बच गई थी) के कालान्तर में पुत्र उत्पन्न हुआ, जिस की सन्तति (औलाद) वर्तमान में उदयपुर तथा मांडवगढ़ में निवास करती है, ऐसा सुनने में आया है। बोहित्थरा गोत्र की निम्नलिखित शाखायें हुई:
१-बोहित्थरा । २-फोकलिया। ३-बच्छावत। ४-दसवाणी। ५-ढुंगराणी । ६-मुकीम । ७-साह । ८-रताणी । ९-जैणावत ॥
१-अप्रीति के पात्र बनने का इन ( कर्मचंद जी ) से कौन सा कार्य हुआ था, इस बात का वर्णन हम को प्राप्त नहीं हुआ, इस लिये उसे यहाँ नहीं लिख सके हैं, बच्छावतों की वंशापली विषयक जिस लेख का उल्लेख प्रथम नोट में कर चुके हैं उस में केवल कर्मचंद जी के पिता संग्रामसिंह जी तक का वर्णन है अर्थात् कर्मचंद जीका वर्णन उस में कुछ नहीं है ॥
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