Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा । वे ही प्रस्ताव हो सकते हैं जिन्हें वर्तमान में भी पाठकगण कुछ २ देखते और सुनते ही होंगे। ___ अब विचार करने का स्थल यह है कि-देखो! उस समय न तो रेल थी, न तार थी और न वर्तमान समय की भाँति मार्गप्रबन्ध ही था, ऐसे समय में ऐसी बृहत् (बड़ी) सभा के होने में जितना परिश्रम हुआ होगा तथा जितने द्रव्य का व्यय हुआ होगा उस का अनुमान पाठकगण स्वयं कर सकते हैं।
अब उन के जात्युत्साह की तरफ तो ज़रा ध्यान दीजिये कि-वह (जात्युत्साह ) कैसा हार्दिक और सद्भावगर्भित था कि-वे लोग जातीय सहानुभूतिरूप कल्पवृक्ष के प्रभाव से देशहित के कार्यों को किस प्रकार आनन्द से करते थे और सब लोग उन पुरुषों को किस प्रकार मान्यदृष्टि से देख रहे थे, परन्तु अफ्सोस है कि-वर्तमान में उक्त रीति का बिलकुल ही अभाव हो गया है, वर्तमान में सब वैश्यों में परस्पर एकता और सहानुभूति का होना तो दूर रहा किन्तु एक जाति में तथा एक मत वालों में भी एकता नहीं है, इस का कारण केवल आत्माभिमान ही है अर्थात् लोग अपने २ बड़प्पन को चाहते हैं, परन्तु यह तो निश्चय ही है कि-पहिले लघु बने विना बड़प्पन नहीं मिल सकता है, क्योंकि विचार कर देखने से विदित होता है कि लघुता ही मान्य का स्थान तथा सब गुणों का अवलम्बन है, उसी उद्देश्य को हृदयस्थ कर पूर्वज
१-एकता और सहानुभूति की बात तो जहाँ तहाँ रही किन्तु यह कितने शोक का विषय है कि-एक जाति और एक मतवालों में भी परस्पर विरोध और मात्सर्य देखा जाता है अर्थात एक दसरे के गुणोत्कर्ष को नहीं देख सकते हैं और न वृद्धि का सहन कर सकते हैं। २-किसी विद्वान् ने सत्य ही कहा है कि-सर्वे यत्र प्रवक्तारः, सर्वे पण्डितमानिनः ॥ सर्वे महत्त्वमिच्छन्ति, तद्वृन्दमवसीदति ॥१॥ अर्थात् जिस समूह में सब ही वक्ता (दूसरों को उपदेश देनेवाले ) हैं अर्थात् श्रोता कोई भी बनना नहीं चाहता है), सब अपने को पण्डित समझते हैं और सब ही महत्त्व ( बड़प्पन ) को चाहते हैं वह (समूह) दुःख को प्राप्त होता है ॥ १ ॥ पाठकगण समझ सकते हैं कि वर्तमान में ठीक यही दशा सब समूहों (सब जातिवालों तथा सब मतवालों ) में हो रही है, तो कहिये सुधार की आशा कहाँ से हो सकती है?॥ ३-स्मरण रहे कि-अपने को लघु समझना नम्रता का ही एक रूपान्तर है और नम्रता के विना किसी गुण की प्राप्ति हो ही नहीं सकती है, क्योंकि नम्रता ही मनुष्य को सब गुणों की प्राप्ति का पात्र बनाती है, जब मनुष्य नम्रता के द्वारा पात्र बन जाता है तब उस की वह पात्रता सब गुणों को खींच कर उस में स्थापित कर देती है अर्थात् पात्रता के कारण उस
सब गुण स्वयं ही आ जाते हैं, जैसा कि एक विद्वान ने कहा है कि-नोदन्वानर्थितामेति. न चाम्भोमिन पूर्यते ॥ आत्मा तु पात्रतां नेयः, पात्रमायान्ति सम्पदः ॥१॥ अर्थात् समुद्र अर्थी ( मांगनेवाला) नहीं होता है परन्तु ( ऐसा होने से ) वह जलों से पूरित न किया जाता हो यह बात नहीं है ( जल उस को अवश्य ही पूरित करते हैं ) इस से सिद्ध है कि अपने को (नम्रता आदि के द्वारा) पात्र बनाना चाहिये, पात्र के पास सम्पत्तियां स्वयं ही आ जाती हैं ॥१॥ इस विषय में यद्यपि हमें बहुत कुछ लिखने की आवश्यकता थी परन्तु ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहाँ पर अब नहीं लिखते हैं ।
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