Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
है कि - मनुष्य को स्वकर्मानुकूल मननशक्ति ( विचार करने की शक्ति ) स्वभाव से ही प्राप्त हुई है, बस इसी लिये प्रत्येक विषय का विज्ञान होते ही उस मननशक्ति के द्वारा चारों वृत्तियाँ क्रम से अपना २ कार्य करने लगती हैं ।
बुद्धिमान् यद्यपि इतने ही लेख से अच्छे प्रकार से समझ गये होंगे कि - मनुष्य सुसङ्गति में रह कर क्यों सुधर जाता है तथा कुसङ्गति में पड़ कर क्यों विगड़ जाता है तथापि साधारण जनों के ज्ञानार्थ थोड़ा सा और भी लिखना आवश्यक समझते हैं, देखिये :
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यह तो सब ही जानते हैं कि मनुष्य जब से उत्पन्न होता है तब ही से दूसरों के चरित्रों का अवलम्बन कर ( सहारा ले कर ) उसे अपनी जीवनयात्रा के पथ ( मार्ग ) को नियत करना पड़ता है, अर्थात् स्वयं (खुद) वह अपने लिये किसी मार्ग को नियत नहीं कर सकता है, हाँ यह दूसरी बात है कि प्रथम किन्हीं विशेष चरित्रों (खास आचरणों ) के द्वारा नियत किये हुए तथा चिरकाल से वित अपने मार्ग पर गमन करता हुआ वह कालान्तर में ज्ञानविशेष के बल से उस मार्ग का परित्याग न करे, परन्तु यह बहुत दूर की बात है ।
बस इसी नियम के अनुसार सत्पुरुषों की सङ्गति पा कर अर्थात् सत्पुरुषों के सदाचार को देख वा सुन कर आप भी उसी मार्ग पर मनुष्य जाने लगता है, इसी का नाम सुधरना है, इस के विरुद्ध वह कुत्सित पुरुषों की सङ्गति को पा कर अर्थात् कुत्सित पुरुषों के दुराचार को देख वा सुन कर आप भी उसी मार्ग में जाने लगता है, इसी का नाम विगड़ना है ।
१ - देखिये बालक अपने माता पिता आदि के चरित्रों को देख कर प्रायः उसी ओर झुक जाते हैं अर्थात् वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं, इस से बिलकुल सिद्ध है कि- मनुष्य की जीवनयात्रा का मार्ग सर्वथा दूसरों के निदर्शन से ही नियत होता है, इस के सिवाय पाश्चात्य विद्वानों ने इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव भी कर लिया है कि यदि मनुष्य उत्पन्न होते ही निर्जन स्थान में रक्खा जावे तो वह बिलकुल मानुषी व्यवहार से रहित तथा पशुवत् चेष्टावाला हो जाता है, कहते हैं कि किसी बालक को उत्पन्न होने से कुछ समय के पश्चात् एक मेड़िया उठा ले गया और उसे ले जा कर अपने भिटे में रक्खा, उस बालक को भेड़िये ने खाया नहीं किन्तु अपने बच्चे के समान उस का भी पालन पोषण करने लगा, ( कभी २ ऐसा होता है कि-भेड़िया छोटे बच्चों को उठा ले जाता है परन्तु उन्हें मारता नहीं हैं किन्तु उनका अपने बच्चों के समान पालन पोषण करने लगता है, इस प्रकार के कई एक बालक मिल चुके हैं, जो कि किसी समय सिकन्दरे आदि के अनाथालयों में भी पोषण पा चुके हैं ), बहुत समय के बाद देखा गया कि वह बालक मनुष्यों की सी भाषा को नवोल कर भेड़िये के समान ही घुरघुर शब्द करता था, भेड़िये के समान ही चारों पैरों से ( हाथ पैरों के सहारे ) चलता था, मनुष्य को देख कर भागता वा चोट करता था तथा जीभ से चप २ कर पानी पीता था, तात्पर्य यह है कि उस के सर्व कार्य भेड़िये के समान ही थे, इस से निर्भ्रम सिद्ध है कि मनुष्य की जीवनयात्रा का पथ बिलकुल ही दूसरों के अवलम्बन पर नियत और निर्भर है अर्थात् जैसा वह दूसरों को करते देखता है वैसा ही स्वयं करने लगता है ||
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