Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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पञ्चम अध्याय ।
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की अनुपम उपाधि को प्राप्त किया था जो कि अब तक मारवाड़ तथा राजपूताना आदि प्रान्तों में इस के नाम को देदीप्यमान कर रही है, सच तो यह है कि या तो शाह या बादशाह, ये दो ही नाम गौरवान्वित मालूम होते हैं ।
इस के अतिरिक्त - इतिहासों के देखने से विदित होता है कि- राजपूताना आदि के प्रायः सब ही रजवाड़ों में राजों और महाराजों के समक्ष में इसी जाति के लोग देशदीवान रह चुके हैं और उन्होंने अनेक धर्म और देशहित के कार्य करके अतुलित यश को प्राप्त किया है, कहाँ तक लिखें- इतना ही लिखना काफी समझते हैं कि यह जाति पूर्व समय में सर्वगुणागार, विद्या आदि में नागर तथा द्रव्यादि का भण्डार थी, परन्तु शोक का विषय है किवर्त्तमान में इस जाति में उक्त बातें केवल नाममात्र ही दीख पड़ती हैं, इस का मुख्य कारण यही है कि इस जाति में अविद्या इस प्रकार घुस गई है किजिस के निकृष्ट प्रभाव से यह जाति कृत्य को अकृत्य, शुभ को अशुभ, बुद्धि को निर्बुद्धि तथा सत्य को असत्य आदि समझने लगी है, इस विषय में यदि विस्तारपूर्वक लिखा जावे तो निस्संदेह एक बड़ा ग्रन्थ बन जावे, इस लिये इस विषय में यहाँ विशेष न लिख कर इतना ही लिखना काफी समझते हैं कि- वर्तमान में यह जाति अपने कर्तव्य को सर्वथा भूल गई है इसलिये यह अधोदशा को प्राप्त हो गई है तथा होती जाती है, यद्यपि वर्त्तमान में भी इस जाति में समयानुसार श्रीमान् जन कुछ कम नहीं हैं अर्थात् अब भी श्रीमान् जन बहुत हैं और उन की तारीफ - घोर निद्रा में पड़े हुए सब भार्यावर्त के भार को उठानेवाले भूतपूर्व बड़े लाट श्रीमान् कर्जन स्वयं कर चुके हैं परन्तु केवल द्रव्य के ही होने से क्या हो सकता है ? जब तक कि उस का बुद्धिपूर्वक सदुपयोग न किया जावे! देखिये ! हमारे मारवाड़ी ओसवाल भ्राता अपनी अज्ञानता के कारण अनेक अच्छे २ व्यापारों की तरफ कुछ भी ध्यान न दे कर सट्टे नामक जुए में रात दिन जुटे ( संलग्न ) रहते हैं और अपने भोलेपन से वा यों कहिये कि स्वार्थ में अन्धे हो कर जुए को ही अपना व्यापार समझ रहे हैं, तब कहिये कि इस जाति की उन्नति की क्या आशा हो सकती है ? क्योंकि सब शास्त्रकारों ने जुए को सात महाव्यसनों का राजा कहा है, तथा पर भव में इस से नरकादि दुःख का प्राप्त होना बतलाया है, अब सोचने की बात है कि- जब यह जुआ पर भव के भी सुख का नाशक है तो इस भव में भी इस से सुख और कीर्ति कैसे प्राप्त हो सकती है, क्योंकि सत्कर्त्तव्य वही माना गया है जो कि उभय लोक के सुख का साधक है ।
इस दुर्व्यसन में हमारे ओसवाल भ्राता ही पड़े हैं यह बात नहीं है, किन्तु वर्तमान में प्रायः मारवाड़ी वैश्य (महेश्वरी और अगरवाल आदि) भी सब ही इस ५५ जै० सं०
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