Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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पञ्चम अध्याय ।
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परन्तु मन में दगा रक्खा अर्थात् मन में यह विचार किया कि-पुत्र के हो जाने के बाद दयामूल जैन धर्म को छोड़ दूंगा, निदान लाखन सिंह के पुत्र तो हुआ परन्तु वह बिना हाथ पैरों का केवल मांस के लोढे (लोदे) के समान उत्पन्न हुआ, उस को देख कर लाखन सिंह ने समझ लिया कि मैं ने जो मन में छल रक्खा था उसी का यह फल है, यह विचार वह शीघ्र ही आचार्य महाराज के पास जा कर उन के चरणों में गिर पड़ा और अपनी सब दगाबाजी को प्रकट कर दिया तब आचार्य महाराज ने कहा कि-"फिर ऐसी दगाबाज़ी करोगे" लाखन सिंह ने हाथ जोड़ कर कहा कि-"महाराज! अब कभी ऐसा न करूँगा" तब सूरि महाराज ने कहा कि-"इस को तो वस्त्र में लपेट कर बद (बड़) की थोथ (खोह ) में रख दो और हम से मब्रे हुए पानी को ले जा कर उस के ऊपर तीन दिन तक उस पानी के छींटे लगाओ, ऐसा करने से अब की वार भी तुम्हारे पुत्र होगा, परन्तु देखो ! यदि दयामूल धर्म में दृढ़ रहोगे तो तुम इस भव और पर भव में सुख को पाओगे" इस प्रकार उपदेश देकर आचार्य महाराज ने लाखन सिंह को दयामूल जैन धर्म का अङ्गीकार करवाया और उस का ओसवाल वंश तथा लोढा गोत्र स्थापित किया। ___ महाराज के कथनानुसार लाखन सिंह के पुनः पुत्र उत्पन्न हुआ और उस का परिवार बहुत बढ़ा अर्थात् दिल्ली, अजमेर नागौर और जोधपुर आदि स्थानों में इस का परिवार फैल कर आबाद हुआ।
लोढों के गोत्र में दो प्रकार की मातायें मानी गई अर्थात् एक तो बड़ की पाटी बना कर उस पाटी को ही माता समझ कर पूजने लगे और कई एक बड़लाई माता को पूजने लगे।
लोढा गोत्र में पुनः निम्नलिखित खापें हुई:.१-टोडर मलोत । २-छज मलोत । ३-रतन पालोत । ४-भाव सिन्धोत ।
सूचना-ऊपर लिख चुके हैं कि-लोढों की कुलदेवी बड़लाई माता मानी गई है, अतः जो लोढे नागौर में रहते हैं उन की स्त्रियों के लिये तो यह बहुत ही आवश्यक बात मानी गई है कि-सन्तान के उत्पन्न होने के पीछे वे जा कर पहिले माता के दर्शन करें फिर कहीं दूसरी जगह को जाने के लिये घर से निकलें, इन के सिवाय जो लोढे बाहर रहते हैं वे तो बड़ी लड़की का और प्रत्येक लड़के का झडूला वहाँ जा कर उतारते हैं तथा काली बकरी और भैंस को न तो खरीदते हैं और न घर में रखते हैं, ये लोग चाक को भी ब्याह में नहीं पूजते हैं, जोधपुर नगर में लोढों को राव का खिताव है, कुछ वर्षों से इन लोगों में से कुछ लोग दयामूलजैन धर्म को छोड़ कर वैष्णव भी हो गये हैं।
१-टोडरमल और छजमल को दिल्ली के बादशाह ने शाह की पदवी दी थी अतः सब ही लोढे शाह कहलाते हैं ।
५४ जै० सं०
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