Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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पञ्चम अध्याय ।
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सूरि हैं, जो कि इस समय गुजरात देश में धर्मोपदेश करते हुए विचरते हैं" इस बात को सुन कर बादशाह ने आचार्य महाराज के पधारने के लिये लाहौर नगर में अपने आदमियों को भेज कर उन से बहुत आग्रह किया, अतः उक्त आचार्य महाराज विहार करते हुए कुछ समय में लाहौर नगर में पधारे, महाराज के वहाँ पधारने से जिनधर्म का जो कुछ उद्योत हुआ उस का वर्णन हम विस्तार के भय से यहां पर नहीं लिख सकते हैं, वहाँ का हाल पाठकों को उपाध्याय श्री समयसुन्दर जी गणी ( जो कि बड़े नामी विद्वान् हो गये हैं) के बनाये हुए प्राचीन स्तोत्र आदि से विदित हो सकता है ।
कर्मचन्द बच्छावत ने बीकानेर में जातिसम्बन्धी भी अनेक रीति रिवाजों में संशोधन किया, वर्तमान में जो उक्त नगर में ओसवालों में चार टके की लावण की प्रथा जारी है उस का नियम भी किसी कारण से इन्हीं ( कर्मचन्द ) ने बाँधा था ।
मुसलमान समखाँ को जब सिरोही देश को लूटा था उस समय अनुमान हजार वा ग्यारह सौ जिनप्रतिमाये भी सर्व धातु की मिली थीं, जिन को कर्मचन्द
१- पाठकों को उक्त विषय का कुछ बोध हो जावे इस लिये उक्त स्तोत्र यहाँ पर लिख देते हैं, देखिये- एजु संतन की मुख वाणि सुणी जिनचंद मुणिंद महन्त जती । तप जप्प करै गुरु गुज्जर में प्रतिबोधत है भवि कू सुमती । तब ही चित चाहन चूंप भई समय सुन्दर के गुरु गच्छपती । पठाय पतिसाह अजब्ब को छाप बोलाए गुरु गच्छ राज गती ॥ १ ॥ ए जु गुज्जर तें गुरुराज चले विच में चोमास जालोर रहै । मेदिनी तट मंडाण कियो गुरु नागोर आदर मान लहै || मारवाड रिणी गुरु वन्द को तरसे सरसै विच वेग वहै । हरख्यो संघ लाहोर आय गुरू पतिसाह अकब्बरपांव ग्रहै ॥ २ ॥ ए जू साह अकब्बर वब्वर के गुरु सूरत देखत ही हरखे। हम जोग जती सिध साध व्रती सब ही षट् दरशन के निरखे ॥ ( तीसरी गाथा के उत्तरार्ध का प्रथम पाद ऊपरली पड़त में न होने से नहीं लिख सके हैं) । तप जप्य दया धर्म धारण को जग कोइ नहीं इन के सरखे ॥ ३ ॥ गुरु अमृत वाणि सुणी सुलतान ऐसा पतिसाइ हुकुम्म दिया । सब आलम माँहि अमार पलाय बोलाय गुरू फुरमाण दिया | जग जीव दया धर्म दाखिन तें जिनशासन में जु सोभाग लिया । समे सुंदर के गुणवंत गुरू दृग देखत हरषित होत हिया ॥ ४ ॥ ए जु श्री जी गुरू धर्म ध्यान मिलै सुलतान सलेम अरज्ज करी । गुरु जीव प्रेम चाहत है चित अन्तर प्रति प्रतीति धरी ॥ कर्मचंद बुलाय दियो फुरमाण छोड़ाय खंभाइत की मछरी । समे सुंदर के सब लोकन में जु खरतर गच्छ की ख्यांत खरी ॥ ५ ॥ ए जु श्री जिनदत्त चरित्र सुणी पतिसाह भए गुरु राजी ये रे । उमराव सबे कर जोड़ खरे पभणे आपणे मुख हाजी ये रे ॥ जुग प्रधान का ए गुरु कूं गिगड दुं गिगड दु धुं धुं बाजीये रे । समय सुंदर के गुरु मान गुरू पतिसाह अकब्बर गाजीये रे ॥ ६ ॥ ए जु ग्यान विज्ञान कला गुण देख मेरा मन रींझीये जू । हाउ को नंदन एम अखै मानसिंह पटोघर कीजीए जू ॥ पतिसाह हजूर थप्यो संघ सूरि मंडाण मंत्री सर वीजीए । जिण चंद गुरू जिण सिंह गुरू चंद सूर ज्यूं प्रतापी एजू ॥ ७ ॥ एजूं हड वंश विभूषण हंस खरतर गच्छ समुद्र ससी । प्रतप्यो जिण माणिक सूरि के पाट प्रभाकर ज्यूं प्रणमूं उलसी ॥ मन शुद्ध अकब्बर मानत है जग जाणत है परतीत इसी । जिण चंद मुणिंद चिरं प्रतपोसमें सुंदर देत असीस इसी ॥ ८ ॥ इति गुरुदेवाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
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