Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा। सुलतान ने अपना मन्त्री बनाया, झाँझणसिंह ने रियासत का इन्तिजाम बहुत अच्छा किया इस लिये उस की नेकनामी चारों तरफ फैल गई, कुछ समय के बाद सुलतान की आज्ञा लेकर झाँझणसिंह कार्तिक की पूर्णिमा की यात्रा करने के लिये शेत्रुञ्जय को रवाना हुआ, वहाँ पर इस की गुजरात के पटणीसाह अवीरचंद के साथ ( जो कि वहाँ पहिले आ पहुँचा था) प्रभु की आरति उतारने की बोली पर वदावदी हुई, उस समय हिम्मत बहादुर मुँहते झाँझणसिंह ने मालवे का महसूल ९२ (बानवे) लाख (जो कि एक वर्ष के इजारह में आता था) देकर प्रभुजी की आरती उतारी, यह देख पटणीसाह भी चकित हो गया और उसे अपना साधर्मी कह कर धन्यवाद दिया, झाँझणसिंह पालीताने से रवाना हो कर मार्ग में दान पुण्य करता हुआ वापिस आया और दर्बार में जाकर सुलतान से सलाम की, सुलतान उसे देख कर बहुत प्रसन्न हुआ तथा उसे उस का पूर्व काम सौंप दिया, एक दिन हलकारे ने सुलतान से झाँझणसिंह की चुगली खाई अर्थात् यह कहा कि-"हजूर सलामत ! झाँझणसिंह ऐसा जबरदस्त है कि उस ने अपने पीर के लिये करोड़ों रुपये खजाने के खर्च कर दिये और आप को उस की खबर तक नहीं दी" हलकारे की इस बात को सुन कर सुलतान बहुत गुस्से में आगया और झाँझणसिंह को उसी समय दर्बार में बुलवाया, झाँझणसिंह को इस बात की खबर पहिले ही से हो गई थी इस लिये वह अपने पेट में कटारी मार कर तथा उपर से पेटी बाँध कर दर्बार में हाजिर हुआ और सुलतान को सलाम कर अपना सब हाल कहा और यह भी कहा कि-"हजूर ! आप की बोलवाला पीर के आगे मैं कर आया हूँ" इस बात को सुन कर सुलतान बहुत प्रसन्न हुआ परन्तु कमरपेटी के खोलने पर झाँझणसिंह की जान निकल गई, बस यहीं से कटारिया शाखा प्रकट हुई अर्थात् झाँझणसिंह की औलाद वाले लोग कटारिया कहलाये, कुछ समय के बाद इन की औलाद का निवास मांडवगढ़ में हुआ, किसी कारण से मुसलमानों ने इन लोगों को पकड़ा और बाईस हजार रुपये का दण्ड किया, उस समय जगरूप जी यति (जो कि खरतरभट्टारकगच्छीय थे) ने मुसलमानों को कुछ चमत्कार दिखला कर कटारियों पर जो बाईस हजार रुपये का दण्ड मुसलमानों ने किया था वह छुड़वा दिया, रत्नपुरा गोत्रवाले एक पुरुष ने बलाइयों (ढेढ जाति के लोगों) के साथ लेन देन का व्यापार किया था वहीं से बलाई शाखा हुई अर्थात् इस की औलादवाले लोग बलाई कहलाने लगे।
ग्यारहवी संख्या-रांका, काला, सेठिया गोत्र । पाली नगर में राजपूत जाति के काकू और पाताक नामक दो भाई थे, विक्रमसंवत् ११८५ ( एक हजार एक सौ पचासी) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज विहार करते हुए इस नगर में पधारे, महाराज के
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