Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
View full book text
________________
६२६
जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
धर्मोपदेश कर रहे थे उसी समय समधर आदि चारों राजपुत्र वहाँ आये और नमन वन्दन आदि शिष्टाचार कर धर्मोपदेश को सुनने लगे तथा उसी के प्रभाव से प्रतिबोध को प्राप्त हुए अर्थात् आचार्य महाराज से उन्हों ने शास्त्रोक्त विधि से श्रावक के बारह व्रतों का ग्रहण किया तथा आचार्य महाराज ने उन का महाजन वंश और बोहित्रा गोत्र स्थापित किया, इस के पश्चात् उन्हों ने धर्मकार्यों में द्रव्य लगाना शुरू किया तथा उक्त चारों भाई संघ निकाल कर और आचार्य महाराज को साथ लेकर सिद्धिगिरि की यात्रा को गये तथा मार्ग में प्रतिस्थान में उन्हों ने साधर्मी भाइयों को एक मोहर और सुपारियों से भरा हुआ एक थाल लाहन में दिया, इस से लोग इन को फोफलिया कहने लगे, बस तब ही से बोहित्थरा गोत्र में से फोफलिया शाखा प्रकट हुई, इस यात्रा में उन्हों ने एक करोड़ द्रव्य लगाया, जब लौट कर घर पर आये तब सब ने मिल कर समधर को संघपति का पद दिया।
समधर के तेजपाल नामक एक पुत्र था, पिता समधर स्वयं विद्वान् था अतः उसने अपने पुत्र तेजपाल को भी छः वर्ष की अवस्था से ही विद्या का पढ़ाना शुरू किया और नीति के कथन के अनुसार दश वर्ष तक उस से विद्याभ्यास में उत्तम परिश्रम करवाया, तेजपाल की बुद्धि बहुत ही तेज थी अतः वह विद्या में खूब निपुण हो गया तथा पिता के सामने ही गृहस्थाश्रम का सब काम करने लगा, उस की बुद्धि को देख कर बड़े २ नामी रईस चकित होने लगे और अनेक तरह की बातें करने लगे अर्थात् कोई कहता था कि-"जिस के मातापिता विद्वान् हैं उन की सन्तति विद्वान् क्यों न हो" और कोई कहता था कि-"तेजपाल के पिता ने अपने लोगों के समान पुत्र का लाड़ नहीं किया किन्तु उस ने पुत्र को विद्या सिखला कर उसे सुशोभित करना ही परम लाड़ समझा" इत्यादि, तात्पर्य यह है कि-तेजपाल की बुद्धि की चतुराई को देख कर रईस लोग उस के विषय में अनेक प्रकार की बातें करने लगे, दैवयोग से समधर देवलोक को प्राप्त हो गया, उस समय तेजपाल की अवस्था लगभग पञ्चीस वर्ष की थी, पाठकगण समझ सकते हैं कि-विद्यासहित बुद्धि और द्रव्य, ये दोनों एक जगह पर हों तो फिर कहना ही क्या है अर्थात् सोना और सुगन्ध इसी का नाम है, अस्तु तेजपाल ने गुजरात के राजा को बहुत सा द्रव्य देकर देश को मुकाते ले लिया अर्थात् वह पाटन का मालिक बन गया और उस ने विक्रमसंवत् १३७७ (एक हजार तीन सौ सतहत्तर) में ज्येष्ठ वदि एकादशी के दिन तीन लाख रुपये लगा कर दादा १-इसी नाम का अपभ्रंश बोधरा हुआ है ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com