Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
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ध्यानारूढ होकर श्रीजी ने मासकल्प का प्रारम्भ किया, आचार्य महाराज का शिष्य अपने वास्ते आहार लाने के लिये सदा ओसियाँ पट्टन में गोचरी जाता था परन्तु जैन साधुओं के लेने योग्य शुद्ध आहार उसे किसी जगह भी नहीं मिलता था, क्योंकि उस नगरी में राजा आदि सब लोग नास्तिक मतानुयायी अर्थात्
१ - कपाली, भस्म लगानेवाले, जोगी, नाथ, कौलिक और ब्राह्म आदि, इन को वाममार्गी और नास्तिक कहते हैं, इन के मत का नाम नास्तिक मत वा चार्वाक मत है, ये लोग स्वर्ग, नरक, जीव, पुण्य और पाप आदि कुछ भी नहीं मानते हैं, किन्तु केवल चातुर्भोतिक देह मानते हैं अर्थात् उन का यह मत है कि चार भूतों से ही मद्यशक्ति के समान (जैसे मद्य के प्रत्येक पदार्थ में मादक शक्ति नहीं है परन्तु सब के मिलने से मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है इस (प्रकार) चैतन्य उत्पन्न होता है तथा पानी के बुलबुले के समान शरीर ही जीवरूप है ( अर्थात् जैसे पानी में उत्पन्न हुआ बुलबुला पानी से भिन्न नहीं है किन्तु पानीरूप ही है इसी प्रकार शरीर में उत्पन्न हुआ जीव शरीर से भिन्न नहीं है किन्तु शरीररूप ही है ), इस मत के अनुयायी जन मद्य और मांस का सेवन करते हैं तथा माता बहिन और कन्या आदि अगम्य ( न गमन करने योग्य ) भी स्त्रियों के साथ गमन करते हैं, ये नास्तिक वाममार्गी लोग प्रतिवर्ष एक दिन एक नियत स्थान में सब मिल कर इकट्ठे होते हैं तथा वहाँ स्त्रियों को नग्न करके उन की योनि की पूजा करते हैं, इन लोगों के मत में कामसेवन के सिवाय दूसरा कोई धर्म नहीं है अर्थात् ये लोग कामसेवन को ही परम धर्म मानते हैं, इस मत में तीन चार फिरके हैं- यदि किसी को इस मत की उत्पत्ति के वर्णन के देखने की इच्छा हो तो शीलतरङ्गिणीनामक ग्रन्थ में देख लेना चाहिये, व्यभिचार प्रधान होने के कारण यह मत संसार में पूर्व समय में बहुत फैल गया था परन्तु विद्या के संसर्ग से वर्त्तमान में इस मत का पूर्व समय के अनुसार प्रचार नहीं है तथापि राजपूताना, पञ्जाब, बंगाल और गुजरात आदि कई देशों में अब भी इस का थोड़ा बहुत प्रचार है, पाठकगण इस मत की अधमता को इसी से जान सकते हैं कि इस मत में सम्मिलित होने के बाद अपने मुख से कोई भी मनुष्य यह नहीं कहता है कि- मैं वाममार्ग में हूँ. राजपूताने के बीकानेर नगर में भी पच्चीस वर्ष पहिले तक उत्तम जातिवाले भी बहुत से लोग गुप्त रीती से इस मत में सम्मिलित होते थे परन्तु जब से लोगों को कुछ २ ज्ञान हुआ तब से वहाँ इस मत के फन्दे से लोग निकलने लगे, अब भी वहाँ शूद्र वर्णों में इस मत का अधिक प्रचार है परन्तु उत्तम वर्ण के भी थोड़े बहुत लोग इस में गुप्ततया फँसे हुए हैं, जिन की पोल किसी २ समय उन की गफलत से खुल जाती है, इस का कारण यह है कि मरनेवाले के पीछे यदि उसका पुत्रादि कोई कुटुम्बी उस की गद्दी पर न बैठे तो वह ( मृत पुरुष ) व्यन्तरपने में अनेक उपद्रव करने लगता है, संवत् १९६३ के माघ महीने की बात है कि उक्त ( बीकानेर ) नगर में बोथरों की गुवाड़ में दिन को चारों दिशाओं से आ आ कर पत्थर गिरते थे तथा उन को देखने के लिये सैकड़ों मनुष्य जमा हो जाते थे, इस प्रकार तीन दिन तक पत्थर गिरते रहे, हम ने भी उक्त गुवाड़ में जाकर अपनी आँखों से गिरते हुए पत्थरों को देखा था, इस मत का अधिक वर्णन यहां पर अनावश्यक समझ कर नहीं लिखते हैं किन्तु प्रसङ्गवशात् वाचकवृन्द को इस मत का कुछ रहस्य ज्ञात ( मालूम ) हो जावे इस लिये दिग्दर्शन मात्र ( बहुत ही थोड़ा सा ) इस का वर्णन कर दिया गया है, इस के विषय में हम अपनी ओर से इतना ही कहना पर्याप्त ( काफी ) समझते हैं कि यद्यपि संसार में अनेक निकृष्ट ( खराब ) मत प्रचरित हो गये हैं तथापि इस कुण्डापन्थ मत के समान दूसरा कोई भी निकृष्ट मत नहीं है, देखिये ! आप चाहे किसी मतवाले से पूछिये परन्तु वह व्यभिचार को कभी धर्म नहीं कहेगा परन्तु इस मत के
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