Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
___ इन के सिद्ध हो जाने की पहिचान यह है कि-तेल में जब झागों का आना बंद हो जावे तब उसे तैयार समझकर झट नीचे उतार लेना चाहिये तथा घी में जब झाग आ जावें त्योंही झट उसे उतार लेना चाहिये।
इन के सिवाय वस्तुओं के तेल घाणी में तथा पातालयन्त्रा दिसे निकाले जाते हैं जिस का जानना गुरुगम तथा शास्त्राधीन है, इस घृत तथा तेल की मात्रा चार तोले की है।
चूर्ण-सूखे हुए औषधों को इकट्ठा कर अथवा अलग २ कूटकर तथा कपड़छान कर रख छोड़ना चाहिये इस की मात्रा आधे तोले से एक तोले तक की है।
धुआँ वा धूप-जिस प्रकार अङ्गार में दवा को सुलगा कर धूप दे कर घर की हवा साफ की जाती है उसी प्रकार कई एक रोगों में दवा का धुआं चमड़ी को दिया जाता है, इस की रीति यह है कि-अंगारे पर दवाको डालकर उसे खाट (चार पाई) के नीचे रख कर खाटपर बैठ कर मुँह को उघाड़े (खुला) रखना चाहिये और सब शरीर को कपड़े से खाट समेत चारों तरफसे इस प्रकार टकना चाहिये कि धुआँ बाहर न निकलने पावे किन्तु अंगपर लगता रहे ।
धूम्रपान जैसे दवा का धुआं शरीर पर लिया जाता है उसी प्रकार दवा को हुक्के में भरकर फिरंग तथा गठिया आदि रोगों में मुंह से वा नाक से पीते हैं, इसे धूम्रपान कहते हैं।
नस्य-नाक में घी तेल तथा चूर्णकी सूंघनी ली जाती है उस को नस्य कहते हैं।
१-इन की दूसरी परीक्षा यह भी है कि स्नेह का पाक करते २ जब कल्क अंगुलियों में मींडने से बत्ती के समान हो जावे और उस कल्क को अग्निमें डालने से आवाज न हो अर्थात् चटचटावे नहीं तब जानना चाहिये कि अब यह स्नेह (घृतअथवा तेल ) सिद्ध हो गया है ।। २-यदि चूर्ण में गुड़ मिलाना हो तो समान भाग डालें, खांड डालनी हो तो यूनी डालें तथा चूर्ण में यदि हींग डालनी हो तो घृत में भून कर डालनी चाहिये, ऐसा करने से यह उत्क्लेद नहीं करती है, यदि चूर्ण को घृत या शहद में मिला कर चाटना हो तो उन्हें (घृत वा शहद को ) चूर्ण से दूने लेवे, इसी प्रकार यदि पतले पदार्थ के साथ चूर्णको लेना हो तो वह (जल आदि) चौगुना लेना चाहिये। ३-धूम्रपान छः प्रकार का हैं-शमन, बृंहण, रेचन, कासहा, वमन और व्रणधूपन, इन का विधान और उपयोग दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में देख लेना चाहिये-थका हुआ, डरपोक, दुखिया, जिस को तत्काल बस्तिविधि कराई गई हो, रेचन लिया हुआ, रात्रि में जागा हुआ, प्यासा, दाह से पीड़ित, जिस का तालु सूख रहा हो, उदररोगी, जिस का मस्तक तप्त हो, तिमिररोगी, छर्दिवाला, अफरे से पीड़ित, उरःक्षतवाला, प्रमेह से पीड़ित, पाण्डुरोगी, गर्भवती स्त्री, रूक्ष और क्षीण, जिस ने दृध शहद घृत और आसव का उपयोग किया हो, जिस ने अन्न दही आदि का उपयोग किया हो, बालक, वृद्ध और कृश, इत्यादि प्राणियों को धूम्रपान नहीं करना चाहिये ॥ ४-नस्य के सब भेद और उन का विधान आदि दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में देखना चाहिये, क्योंकि नस्य का विधान बहुत विस्तृत है ।।
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