Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
View full book text
________________
चतुर्थ अध्याय ।
५८९ के योग्य) मालूम होता है कि-रोगी किसी को हाथ भी नहीं लगाने देता है, परन्तु यदि उस (रोगी) के लक्ष्य (ध्यान) को दूसरे किसी विषय में लगा कर (दूसरी तरफ ले जाकर ) उक्त स्थानों में स्पर्श किया जावे तो उस को कुछ भी नहीं मालूम होता है, तात्पर्य यही है कि-इस रोग में वास्तविक (असली) विकार की अपेक्षा मनोविकार विशेष होता है, नाक, कान, आँख और जीभ, इन इन्द्रियों के कई प्रकार के विकार मालूम होते हैं अर्थात् कानो में घोंघाट (घों २ की आवाज) होता है, आँखों में विचित्र दर्शन प्रतीत (मालूम) होते हैं, जीभ में विचित्र स्वाद तथा नाक में विचित्र गन्ध प्रतीत होते हैं, पेट अर्थात् पेडू में से गोला ऊपर को चढ़ता है तथा वह छाती और गले में जाकर ठहरता है जिस से ऐसा प्रतीत होता है कि रोगी को अधिक व्याकुलता हो रही है तथा वह उस ( गोले) को निकलवाने के लिये प्रयत्न करना चाहता है, कभी २ स्पर्श का ज्ञान बढ़ने के बदले (एबज में) उस (स्पर्श) का ज्ञान न्यून (कम) हो जाता है, अथवा केवल शून्यता (शरीर की सुन्नता) सी प्रतीत होने लगती है अर्थात् शरीर के किसी २ भाग में स्पर्श का ज्ञान ही नहीं होता है।
इस रोग में गतिसम्बन्धी भी अनेक विकार होते हैं, जैसे-कभी २ गति का विनाश हो जाता है, अकेली दाँती लग जाती है, एक अथवा दोनों हाथ पैर खिंचते हैं, खिचने के समय कभी २ स्नायु रह जाते हैं और अर्धाग (आधे अंग का रह जाना) अथवा अरुस्तम्भ (उरुओं का रुकना अर्थात् बंध जाना) हो जाता है, एक वा दोनों हाथ पैर रह जाते हैं, अथवा तमाम शरीर रह जाता है और रोगी को शय्या (चारपाई ) का आश्रय (सहारा) लेना पड़ता है, कभी २ आवाज बैठ जाती है और रोगी से बिलकुल ही नहीं बोला जाता है।
इस रोग में कभी २ स्त्री का पेट बड़ा हो जाता है और उस को गर्भ का भ्रम होने लगता है, परन्तु पेट तथा योनि के द्वारा गर्भ के न होने का ठीक निश्चय करने से उस का उक्त भ्रम दूर हो जाता है, गर्भ के न रहने का निश्चय क्लोरोफार्म के सैंघाने से अथवा बिजुली के लगाने से पेट के शीघ्र बैठ जाने के द्वारा हो सकता है।
इस रोग से युक्त स्त्रियों में प्रायः अजीर्ण, वमन (उलटी), अम्लपित्त, डकार, दस्त की कब्जी, चूंक, गोला, खांसी, दम, अधिक आर्तव का होना, आर्तव का न होना, पीड़ा से युक्त आर्तव का होना और मूत्र का न्यूनाधिक होना, ये लक्षण पाये जाते हैं, इन के सिवाय पेशाब में गर्मी आदि विचित्र प्रकार के चिह्न भी होते हैं।
५० जै० सं०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com