Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
लक्षण-बाहर के हुए तथा लीखें यद्यपि प्रत्यक्ष ही दीखते हैं तथापि चमडीपर ददोड़े, फोड़े, फुनसी, खुजली और गडगूमद का होना उन की सत्ता (विद्यमानता) के प्रत्यक्ष चिह्न हैं।
अब पृथक् २ कारणों से उत्पन्न होनेवाली कृमियों के लक्षणों को लिखते हैं:
१-कफ से उत्पन्न हुई कृमियों में कुछ तो चमड़े की मोठी डोरी के समान, कुछ अलसिये के समान, कुछ अन्न के अंकुर के समान, कुछ बारीक और लम्बी तथा कुछ छोटी २ होती हैं।
इन के सिवाय कुछ सफेद और लाल झाईवाली भी कृमि होती हैं, जिन की सात जातियां हैं-इन के शरीर में होने से जीका मचलाना, मुँह में से लार का गिरना, अन्न का न पचना, अरुचि, मूर्छा, उलटी, बुखार, पेट में अफरा, खांसी, छींक और क्षेम, ये लक्षण होते हैं।
२-खून से उत्पन्न होनेबाली कृमि छः प्रकार की होती हैं, और ने इस प्रकार सूक्ष्म होती हैं कि-सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से ही उन को देख सकते हैं, इन कृमियों से कुष्ठ आदि अर्थात् चमड़ी के रोग उत्पन्न होते हैं।
३-विष्ठा भर्थात् दस्त से उत्पन्न होनेवाली कृमि गोल, महीन, मोठी, सफेद, पीले, काले तथा अधिक काले रंग की भी होती हैं, ये कृमि पांच प्रकार की होती हैं -जब कृमि होजरी के सम्मुख जाती है तब दस्त, गांउ, मल का अवरोध ( रुकना), शरीर में दुर्बलता, वर्ण का फीकापन, रोंगटे खड़े होना, मन्दाग्नि तथा बैठक में खुजली, इत्यादि चिह्न होते हैं।
कृमि विशेषकर बच्चों के उत्पन्न होती है. उस दशा में उन की भून या तो बिलकुल ही जाती रहती है वा सब दिन भून ही भूख बनी रहती है।
इन के सिवाय-पानी की अधिक प्यास, नाक का घिसना, पेट में दर्द, मुख में दुर्गन्धि, वमन, बेचैनी, भनिद्रा (नींद का न आना), गुदा में कांटे, दस्त का पतला आना, कभी दस्त में और कभी मुख के द्वारा कृमियों का गिरना, खुराक
१-अर्थात् कोठपिटिका (फुन्सी), खुजली और गलगण्डादि से उन की विद्यमानता का ठीक निश्चय हो जाता है, क्योंकि कोठपिटिका आदि कृमियों से ही उत्पन्न होती हैं ॥ २-उड़द, गुड़, दूध, दही और सिरका, इन पदार्थों का सेवन करने से कफजन्य कृमि प्रकट होती है, तथा ये कृमियां आमाशय में प्रकट होकर तथा बढ़कर सब देह में विचरती है ॥ ३-वे सात जातियां ये हैं-भत्रादा (आँतों को खानेवाली), उदरावेष्टा (पेटमें लिपटी रहनेवाली), हृदयादा ( हृदय को खानेवाली), महागुह, चुर व (चिनूना), दर्भकुसुमा ( डाभ अर्थात् कुश के फूल के समान ) और सुगन्धा ।। ४-श्लेष्म अर्थात् पीनस रोग ॥ ५-केशादा, लोमविध्वंसा, रोमदीप उदुम्बर, सौरस और मातर, ये छः जातियां रक्तज कृमियों की हैं ।। ६-विष्ठासे उत्पन्न हुई कृमियों की ककेरुक, मकेरुक, सौसुरादा, मलूना और लेलिहा, ये पांच जातियां हैं ।
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