Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
बस उसी कुसंस्कार को हटाना तथा भावी सन्तान को उस से बचाना हमारा अभीष्ट है, हमारा ही क्या, किन्तु सर्व सज्जनों और महात्माओं का वही अभीष्ट है और होना ही चाहिये, क्योंकि विज्ञान पाकर जो अपने भूले हुए भाई को कुमार्ग से नहीं हटाता है वह मनुष्य नहीं किन्तु साक्षात् पशु है । अब जो तुम ने हानि लाभ की बात कही कि एक की हानि से दूसरे का लाभ होता है इत्यादि, सो तुम्हारा यह कथन बिलकुल अज्ञानता और बालकपन का है, देखो ! सज्जन वे हैं जो कि दूसरे की हानि के विना अपना लाभ चाहते हैं, किन्तु जो परहानि के द्वारा अपना लाभ चाहते हैं वे नराधम (नीच मनुष्य ) हैं, देखो ! जो योग्य वैद्य और डाक्टर हैं वे पात्रापात्र (योग्यायोग्य ) का विचार कर रोगी से द्रव्य का ग्रहण करते हैं, किन्तु जो (वैद्य और डाक्टर ) यह चाहते हैं कि मनुष्यगण बुरी आदतों में पड कर खूब दुःख भोगें और हम खूब उन का घर लूटें, उन्हें साक्षात् राक्षस कहना चाहिये, देखो! संसार का यह व्यवहार है कि-एक का काम करके दूसरा अपना निर्वाह करता है, बस इस प्रथा के अनुकूल वर्ताव करनेवाले को दोषास्पद (दोष का स्थान) नहीं कहा जा सकता है, अतः वैद्य रोगी का काम करके अर्थात् रोग से मुक्त करके उस की योग्यतानुसार द्रव्य लेवें तो इस में कोई अन्यथा (अनुचित) वात नहीं है, परन्तु उन की मानसिक वृत्ति स्वार्थतत्पर और निकृष्ट नहीं होनी चाहिये, क्योंकि मानसिक वृत्ति को स्वार्थ में तत्पर तथा निकृष्ट कर दूसरों को हानि पहुँचा कर जो स्वार्थसिद्धि चाहते हैं वे नराधम और परापकारी समझे जाते हैं और उन का उक्त व्यवहार सृष्टिनियम के विरुद्ध माना जाता है तथा उस का रोकना अत्यावश्यक समझा गया है, यदि उस का रोकना तुम आवश्यक नहीं समझते हो तथा निकृष्ट मानसिक वृत्ति से एक को हानि पहुँचा कर भी दूमरे के लाभ होने को उत्तम समझते हो तो अपने घर में घुसते हुए चोर को क्यों ललकारते हो? क्योंकि तुम्हारा धन ले जाने के द्वारा एक की हानि
और एक का लाभ होना तुम्हारा अभीष्ट ही है, यदि तुम्हारा सिद्धान्त मान लिया जाये तब तो संसार में चोरी जारी आदि अनेक कुत्सिताचार होने लगेंगे और राजशासन आदि की भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी, महा खेद का विषय है कि-ब्याह शादियों में रण्डियों का नचाना, उन को द्रव्य देना, उस द्रव्य को बुरे मार्ग में लगवाना, बच्चों के संस्कारों का विगाड़ना, रण्डियों के साथ में ( मुकाविले में) घर की स्त्रियों से गालियाँ गवा कर उन के संस्कारों का विगाड़ना, आतिशवाजी और नाच तमाशों में हजारो रुपयों को फूंक देना, बाल्यावस्था में सन्तानों का विवाह कर उन के अपक्क (कच्चे ) वीर्य के नाश के लिये प्रेरणा करना तथा अनेक प्रकार के बुरे व्यसनों में फँसते हुए सन्तानों को न रोकना, इत्यादि महा हानिकारक बातों को तो तुम अच्छा और ठीक समझते हो और उन को करते हुए तुम्हें तनिक भी लज्जा नहीं आती है किन्तु हमने जो अपना कर्त्तव्य समझ कर लाभदायक (फायदेमन्द) शिक्षाप्रद (शिक्षा अर्थात् नसीहत देने वाली) तथा जगत् कल्याणकारी बातें लिखी हैं उन को तुम ठीक नहीं समझते हो, वाह जी वाह! धन्य है तुम्हारी बुद्धि ! ऐसी २ वुद्धि और विचार रखने वाले तुम्हीं लोगों से तो इस पवित्र आर्यावर्त देश का सत्यानाश हो गया है और होता जाता है, देखो! बुद्धिमानों का तो यही परम (मुख्य) कर्तव्य है कि जो बुद्धिमान् जन गृहस्थों को लाभ पहुंचाने वाले तथा शिक्षाप्रद उत्तम २ लेखों को प्रकाशित (जाहिर) करें उन के उक्त लेखों को पढ़ें और उन्हें विचारें तथा यदि वे लेख अपने हितकारक मालूम पड़ें तो उन का स्वयं अङ्गीकार कर अपने दूसरे भाइयों को उन (लेखों) का उपदेश देकर उन को सन्मार्ग (अच्छे रास्ते ) में लाने की चेष्टा करें तथा यदि वे लेख अपने को हितकारी प्रतीत (मालूम) न हों तो उन्हें अपनी ही बुद्धि से अहितकारी न ठहराकर दूसरे बुद्धिमान् विवेकशील (विचारशाली) और दूरदर्शी जनों के साथ उन के विषय में विचार कर उन की सत्यता असत्यता तथा हितकारिता और अहितकारिता के विषय में निर्धार (निश्चय) करें, क्योंकि
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