Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
वस्ति देने पर यदि स्नेह एक दिन रात्रि में भी पीछा न निकले तो शोधन के उपायों से उसे बाहर निकालना चाहिये, परन्तु स्नेह के निकालने के लिये दूसरी बार स्नेह घस्ति नहीं देनी चाहिये | अनुवासन तैल - गिलोय, एरंड, का, भारंगी, अडूसा, सौधिया तृण, सतावर, कटसरैया और कौवा ठोड़ी, ये सब चार २ तोले, जौं, उड़द, अलसी, बेर की गुठली और कुलथी, ये सब आठ २ तोले लेवे, इन सब को चार द्रोण (धोन ) जल में औटावे, जब एक द्रोण जल शेष रहे तब इस में चार २ रुपये भर सब जीवनीयगण की औषधों के साथ एक आढक तेल को परिपक्क करे, इस तेल का उपयोग करने से सब बातसम्बंधी रोग दूर होते हैं, वस्ति किया में कुछ भी विपरीतता होने से चौहत्तर प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, ऐसी दशा जब कभी हो जावे तो सुश्रुत में कहे अनुसार नलिका आदि सामग्रियों से चिकित्सा करनी चाहिये, इस वस्ति कर्म में पथ्यापथ्य स्नेह पान के समान सब कुछ करना चाहिये || चौथा कर्म निरूहण है-यह वस्ति का दूसरा भेद है - तात्पर्य यह है कि - काढ़े, दूध और तैल आदि की पिचकारी लगाने को निरूहण वस्ति कहते हैं, इस वस्ति के पृथक् २ ओषधियों के सम्मेल से अनेक भेद होते हैं तथा इसी कारण से उन भेदों के पृथक् २ नाम भी स्क्खे गये हैं, इस निरूहण वस्ति का दूसरा नाम आस्थापन वस्ति भी है, इस नाम के रखने का हेतु यह है कि इस वस्ति से दोषों और धातुओं का अपने २ स्थान पर स्थापन होता है । निरूहणवस्तिकी मात्रा - इस वस्ति की सवा प्रस्थ की मात्रा उत्तम, एक प्रस्थ की मात्रा मध्यम और तीन कुड़व ( तीन पाव ) की मात्रा अधम मानी गई है । निरूहणवस्ति के अनधिकारी - अत्यन्त स्निग्ध शरीर वाला, जिस के दोष परिपक्क कर न निकाले गये हों, उरःक्षत वाला, कृश, अफरा वाला, छर्दि, हिचकी, बवासीर, खांसी, श्वास तथा गुदारोग से युक्त, सूजन, अतीसार तथा विषूचिका रोग वाला, कुष्ठरोगी, गर्भिणी स्त्री, मधुप्रमेही और जलोदर रोग वाला, इन सब को निरूहण वस्ति नहीं देनी चाहिये । निरूहणवस्ति के अधिकारी-वातसम्बंधी रोग, उदावर्त, वातरक्त, विषमज्वर, मूर्छा तथा तृषारोग से युक्त, उदररोगी, अफरा, मूत्रकृच्छ्र. पथरी, अण्डवृद्धि, रक्तप्रदर, मन्दाग्नि, प्रमेह, शूल, अम्लपित्त और छाती के रोग से युक्त, इन सब को विधिपूर्वक निरूहण वस्ति देनी चाहिये । निरूहणवस्ति की विधि वा समय - जो रोगी मल, मूत्र और अधोवायु के वेग का त्याग कर चुका हो, स्नेहन और बफारा ले चुका हो तथा जिस ने भोजन न किया हो, इन सब के मध्याह्न के समय घर के भीतर निरूहण वस्ति करनी चाहिये, इस वस्ति के देने के पश्चात् पिचकारी को गुदा से बाहर निकाल लेना चाहिये तथा रोगी को दो घड़ी तक ऊकरूँ ही बैठे रहना चाहिये, क्योंकि दो घड़ी के भीतर ही स्नेह वस्ति बाहर निकल आती है, यदि दो घडी में भी वस्ति का तेल बाहर न निकले तो जवाखार, गोमूत्र, नींबू का रस और सेंधानमक, इन की पिचकारी रूप शोधन से वस्ति के तेल को बाहर निकाल देना चाहिये । वस्ति के ठीक होने के लक्षण - जिस रोगी के क्रम से मल, पित्त, कफ और वायु निकलें तथा शरीर हलका हो जावे उस के वस्ति का ठीक लगाना जानना चाहिये । वस्ति के ठीक न होने के लक्षण - जिस मनुष्य के थोड़े २ वेग से पिचकारी बाहर निकले, मल और पवन थोड़े २ निकलें. मूर्च्छा आवे, पीड़ा हो, भारीपन तथा अरुचि हो, उस के वस्ति का ठीक न लगाना जानना चाहिये, क्योंकि दी हुई औषधि का निकल जाना, मन में प्रसन्नता का होना, स्निग्धता का होना तथा व्याधि का घटना, ये सब लक्षण दोनों वस्तियों के ठीक लगने के हैं । वस्ति का नियम - वस्ति कर्म के जानने वाले वैद्य को इस प्रकार वस्ति देनी चाहिये कि - यदि प्रथम वस्ति ठीक लग जावे तो दूसरी, तीसरी तथा चौथी वार भी वस्ति देनी चाहिये, यदि वादी का रोग हो तो निरूह बस्ति देनी चाहिये, पित्त का रोग हो तो दूध के साथ दो निरूह बस्तियां देनी चाहियें, कफ का रोग हो तो कषैले, चरपरे और गोमूत्रादि पदार्थों को गर्म
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