Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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.. चतुर्थ अध्याय ।
५८३ ओषधियों को समान भाग लेकर चूर्ण बना लेना चाहिये, इस में से एक तोले चूर्ण को दही का जल, कांजी, छाछ अथवा दूध के साथ लेना चाहिये, इस का सेवन करने से आमवात, सूजन और सन्धिवात, ये रोग शान्त हो जाते हैं।
५१-वैश्वानर चूर्ण-सेंधा निमक दो तोले, अजवायन दो तोले, अजमोद तीन तोले, सोंठ पांच तोले और हरड़ बारह तोले, इन सब ओषधियों का बारीक चूर्ण कर के उसे दही का जल, छाछ, कांजी, घी और गर्म जल, इन में से चाहें जिस पदार्थ के साथ लेना चाहिये, इस के सेवन से आमवात, गुल्म, हृदय और बस्ती के रोग, तिल्ली, गांठ, शूल, अफरा, गुदा के रोग, विवंधे और उदर के सब रोग शीघ्र ही शान्त हो जाते हैं तथा अधोवायु (अपानवायु) का अनुलोमन (नीचे को गमन ) होता है।
५२-असीतकादि चूर्ण-कोयल, पीपल, गिलोय, निसोत, बाराहीकन्द, गजकर्ण ( साल का भेद) और सोंठ, इन सब ओषधियों को समान भाग लेकर चूर्ण करे तथा इस चूर्ण को गर्म जल, मांड, यूष, छाछ और दही का जल, इन में से किसी एक के साथ लेवे, इस के सेवन से अपबाहुक, गृध्रसी, खावात, विश्वाची, तूनी, प्रतूनी, जंघा के रोग, आमवात, अर्दित, (लकवा), वातरक्त कमर की पीड़ा, गुल्म (गोला), गुदा के रोग, प्रकोष्ठे के रोग, पाण्डुरोग, सूजन तथा उरुस्तम्भ, ये सब रोग मिट जाते हैं।
५३-शुण्ठीधान्यकघृत-सोंठ का चूर्ण छः टके भर (छः पल) तथा धनिया दो टके भर, इन में चौगुना जल डाल कर एक सेर घी को परिपक्क करना (पकाना) चाहिये, यह घृत वातकफ के रोगों को दूर करता है, अग्नि को बढ़ाता है तथा बवासीर; श्वास और खांसी को नष्ट कर बल और वर्ण को उत्पन्न करता है। __५४-शुण्ठीघृत-पुष्टता के लिये यदि बनाना हो तो दूध, दही, गोमूत्र और गोवर के रस के साथ घी को पकाना चाहिये तथा यदि अग्निदीपन के लिये बनाना हो तो छाछ के साथ घी को पकाना चाहिये, इस घी को सोंठ का कल्क डाल कर तथा चौगुनी कांजी को डाल कर सिद्ध करना चाहिये, यह घृत अग्निकारक तथा आमवातहरणकर्ता है।
५५-दूसरा शुण्ठीघृत-सोंठ के काथ और कल्क से एक सेर घृत और चार सेर जल से अथवा केवल उक्त क्वाथ और कल्क से ही घृत को सिद्ध करना चाहिये, यह शुण्ठीघृत वातकफ को शान्त करता है, अग्नि को प्रदीप्त करता है तथा कमर की पीड़ा और आम को नष्ट करता है।
१-गुल्म अर्थात् गोले का रोग ॥ २-नाभि के नीचले भाग को बस्तिस्थान कहते हैं ॥ ३-विबंध अर्थात् मल और मूत्रादि का रुकना ॥ ४-अपबाहुक आदि सब वातजन्य रोग हैं ॥ ५-प्रकोष्ठ के रोग अर्थात् कोठे के रोग ॥ ६-ऊरुस्तम्भ अर्थात् जंघाओं का रह जाना ॥ ७-घृत तथा तैल को सिद्ध करने की विधि पहिले औषध. प्रयोगवर्णन नामक प्रकरण में लिख चुके हैं ॥
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