Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
समझ कर नहीं किया जाता है, उस का विषय आवश्यकतानुसार दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में देख लेना चाहिये।
पाँचवां कर्म नावन (नस्य) देना है, तात्पर्य यह है कि जो ओषधि नासिका से ग्रहण की जाती है उसे नावन बा नस्य कहते हैं, इस कर्म के नावन और नस्यकर्म, ये दो नाम हैं, इस को नस्यकर्म इसलिये कहते हैं कि इस से नासिका की चिकित्सा होता है, नस्यकर्म के दो भेद हैं-रेचन और स्नेहन, इन में से जिस कर्म से भीतरी पदार्थों को कम किया जावे उसे रेचन कहते हैं तथा जिस कर्म से भीतरी पदार्थों की वृद्धि की जावे उसे स्नेहन कहते हैं । समयानुसार नस्य के गुण-प्रातःकाल की नस्य कफ को दूर करती है, मध्याह्न की नस्य पित्त को और सायंकाल की नस्य वादी को नष्ट करती है, नस्य को प्रायः दिन में लेना चाहिये परन्तु यदि घोर रोग हो तो रात्रि में भी ले लेना चाहिये । नस्य का निषेध-भोजन के
छे तत्काल. जिस दिन बादल हो उस दिन.लंघन के दिन, नवीन जखाम के समय में, गर्भवती स्त्री, विषरोगी, अजीर्णरोगी, जिस को वस्ति दी गई हो, जिसने स्नेह जल वा आसव पिया हो, क्रोधी, शोकाकुल, प्यासा, वृद्ध, बालक, मल मूत्र के वेग का रोकने वाला, परिश्रमी और जो स्नान करना चाहता है, इन सब को नस्थ लेना निषिद्ध है । नस्य की अवस्था--जब तक बालक आठ वर्ष का न हो जावे तब तक उसे नस्य नहीं देना चाहिये तथा अस्सी वर्ष के पीछे भी नस्य नही देना चाहिये । रेचननस्यकी विधि-तीक्ष्ण तैल से, अथवा तीक्ष्ण औषधों से पके हुए तैलों से, काथों से, अथवा तीक्ष्ण रसों से रेचन नस्य लेनी चाहिये, यह नस्य नासिका के दोनों छिद्रों में लेनी चाहिये तथा प्रत्येक छिद्र में आठ २ बूँद डालना चाहिये, यह उत्तम मात्रा है, छः २ बूंदों की मध्यम मात्रा है और चार २ बूंदों की अधम मात्रा है । नस्य में
औषधों की मात्रा का परिमाण-नस्यकर्म में तीक्ष्ण औषध रत्ती भर लेना चाहिये, हींग एक जौं भर, सेंधा निमक छः रत्ती, दूध चार शाण, पानी तीन रुपये भर तथा मधुर द्रव्य एक रुपये भर लेना चाहिये। रेचनस्य के भेद-रेचननस्य के अवपीड़न और प्रधमन, ये दो भेद हैं-यदि नस्य देकर मस्तक को खाली करना हो तो योग्य रीति से इन दोनों मेदों का प्रयोग करना चाहिये, जिस के साथ में तीक्ष्ण पदार्थों को मिलाया हो उन का कल्क करके रस निचोड़ लेना, इस को अवपीड़न कहते हैं और छः अंगुलवाली दो मुख की नली में ४८ रत्ती तीक्ष्ण चूर्ण भरकर मुख की फूंक देकर उस चूर्ण को नाक में चढ़ा देना, इस को प्रधमन कहते हैं। नस्यों के योग्य रोग-हँसली के ऊपर के रोगों में कफ के स्वरभंग में, अरुचि, प्रतिश्याय, मस्तकशूल, पीनस, सूजन, मृगी और कुष्ठरोग में रेचननस्य देना चाहिये, डरनेवाले, स्त्री, कृश मनुष्य और बालक को लेहननस्य देना चाहिये, गले के रोग, सन्निपात, निद्रा, विषम ज्वर, मन के विकार और कृमिरोग में अवपीड़न नस्य देना चाहिये तथा अत्यन्त कुपित दोषवाले रोगों में और जिन में संज्ञा नष्ट होगई हो ऐसे रोगों में प्रधमननस्य देना चाहिये । विरेचननस्यसोठ के चूर्ण को तथा गुड़ को मिलाकर अथवा सेंधे निमक और पीपल को पानी में पीसकर नस्य देने से नाक, मस्तक, कान, नेत्र, गर्दन, ठोड़ी और गले के रोग तथा भुजा और पीठ के रोग नष्ट होते हैं, महुए का सत, बच, पीपल, काली मिर्च और सेंधा निमक, इन को थोड़े गर्म जल में पीसकर नस्य देने से मृगी, उन्माद, सन्निपात, अपतत्रक और वायु की मूर्छा, ये सब दूर होते हैं, सेंधानिमक, सफेद मिर्च ( सहजने के बीज ), सरसों और कूठ, इन को बकरे के मूत्र में बारीक पीस कर नस्य देने से तन्द्रा दूर होती है, काली मिर्च, बच और कायफल के चूर्ण को रोहू मछली के पित्ते की भावना देकर नली से प्रधमननस्य देना चाहिये। बृंहणनस्य के भेद बृंहणनस्य के मर्श और प्रतिमर्श, ये दो भेद हैं, इन में से शाण से जो स्नेहन नस्य दी जाती है उसे मर्श कहते हैं, (तर्जनी अङ्गुली की आठ बूंदों की मात्रा को शाण कहते हैं) इस मर्श नस्य में आठ शाण की तर्पणी मात्रा प्रत्येक नथुने में देना उत्तम मात्रा है, चार शाण
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