Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
सन्निपातजन्य प्रदर का रंग शहद, घी, हरताल और मजा के समान होता है तथा उस में मृत शरीर के गन्ध के समान गन्ध आती है, यह सन्निपातजन्य प्रदर रोग असाध्य होता है।
अति प्रदर के उपद्रव-प्रदर के अत्यंत गिरने से दुर्बलता, श्रम, मूर्छा, मद, तृषा (प्यास), दाह (जलन), प्रलाप (बकना), पाण्डुरोग, तन्द्रा (मीट) और वातजन्य आक्षेपक आदि रोग हो जाते हैं।
असाध्य प्रदर के लक्षण-जिस के प्रदर के रुधिर का स्राव निरन्तर होता हो; तृषा, दाह और ज्वर हो, जो दुर्बल हो तथा जिस का रुधिर क्षीण हो गया हो उस स्त्री का यह रोग असाध्य माना जाता है।
चिकित्सा-१-दही चार तोले, काला निमक एक मासा, जीरा दो मासे, मौलेठी दो मासे, नीला कमल दो मासे और शहद चार मासे, इन को इकट्ठा पीस कर खाने से वातजन्य प्रदर शांत हो जाता है ।
२-मौलेटी एक तोला और मिश्री एक तोला, इन दोनों को चावलों के जल में, पीस कर पीने से रक्तप्रदर मिट जाता है।
३-अथवा-खिरेटी' की जड़ का चूर्ण कर मिश्री और शहद के साथ खाने से रक्तप्रदर दूर हो जाता है।
४-अथवा-किसी पवित्र स्थान से व्याघ्रनखी औषधिकी तत्तर की तरफ की जड़ को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उखाड़ कर उसे कमर में बाँधने से रक्तप्रदर अवश्य मिट जाता है।
५-रसोत और चौलाई की जड़ को बारीक पीस कर चावलों के जल में इसे तथा शहद को मिला कर पीने से त्रिदोपजन्य प्रदर नष्ट हो जाता है।
६-अशोक वृक्ष की चार तोले छाल को बत्तीस पल जलमें औटावे, जब आठ पल शेप रहे तब उस में उतना ही ( आठ पल) दूध मिला कर उसे पुनः
औटावे, जब केवल दूध शेष रह जावे तब उसे उतार कर शीतल करे, इस में से चार पल दूध प्रातःकाल पीना चाहिये, अथवा जठराग्नि का बलाबल विचार न्यूनाधिक मात्रा का सेवन करे, इस से अति कठिन भी रक्तप्रदर शीघ्र ही दूर हो जाता है।
७-कुश की जड़ को चावलों के धोवन में पीस कर तीन दिन तक पीने से प्रदर रोग शान्त हो जाता है।
१-इसे संस्कृत में बला कहते है ।। २-इसे भाषा में वाघनखी कहते हैं, यह एक प्रकार की रूखड़ी होती है।
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