Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
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के लिये रोगी को देवें । मात्रा-वमन के लिये पीने योग्य काथ की आठ सेर की मात्रा बडी है, छ: सेर की मध्यम है और तीन सेर की मात्रा हीन होती है, परन्तु वमन, विरेचन और रुधिर के निकालने में १३॥ पल अर्थात् ५४ तोले का सेर माना गया है। कल्क वा चूर्णादि की मात्रा-वमनादि में कल्क चूर्ण और अवलेह की उत्तम मात्रा बारह तोले की है, आठ तोले की मध्यम तथा चार तोले की अधम मात्रा है । वमन में वेग-वमन में आठ वेगों के पीछे पित्त का निकलना उत्तम है, छः वेगों के पीछे पित्त का निकलना मध्यम है तथा चार वेगों के पीछे पित्त का निकलना अधम है, कफ को चरपरे तीक्ष्ण और उष्ण पदार्थों से दूर करे, पित्त को स्वादिष्ट और शीतल पदार्थों से तथा वात मिश्रित कफ को स्वादिष्ट, नमकीन, खट्टे और गर्म मिले पदार्थों से दूर करे, कफ की अधिकता में पीपल, मैनफल और सेंधानिमक, इन के चूर्ण को गर्म जल के साथ पीवे, पित्त की अधिकता में पटोलपत्र, अडूसा और नीम के चूर्ण को शीतल जल के साथ पीवे तथा कफ युक्त वात की पीडा में मैनफल के चूर्ण को फकी ले कर ऊपर से दूध पीवे, अजीर्ण रोग में गर्म जल के साथ सेंधानिमक के चूर्ण को खाकर वमन करे, जब वमन कर्त्ता औषध को पी चुके तब ऊँचे आसन ( मेज वा कुर्सी ) पर बैठ कर कण्ठ को अण्ड के पत्ते की नाल से वारंवार खुजला कर वमन करे । वमन ठीक न होने के अवगुण-मुख से पानी का बहना, हृदय का रुकना, देह में चकत्तों का पड जाना तथा सव देह में खुजली का चलना, ये सब वमन के ठीक रीति से न होने से उत्पन्न होते हैं । अत्यन्त वमन के उपद्व-अत्यन्त वमन के होने से प्यास, हिचकी, डकार, बेहोशी, जीभ का निकलना, आँख का फटना, मुख का खुला रह जाना, रुधिर की वमन का होना, वारं वार थूक का आना और कण्ठ में पीडा का होना, ये अति वमन के उपद्रव हैं । अति वमन का यत्र-यदि वमन अत्यन्त होते होवें तो साधारण जुलाब देना चाहिये, यदि जीभ भीतर चली गई हो तो स्निग्ध खट्टे खारे रस से युक्त घी और दूध के कुल्ले करने चाहिये तथा उस प्राणी के आगे बैठ कर दूसरे लोगों को नींबू आदि खट्टे फलों को चूसना चाहिये, यदि जीभ बाहर निकल पडी हो तो तिल वा दाख के कल्क से लेपित कर जिह्वा का भीतर प्रवेश कर दे, यदि अति वमन से आँख फट कर निकल पडी हो तो घृत चुपड कर धीरे २ भीतर को दबावे, यदि जावडा फटे का फटा (खुला ही ) रह गया हो तो स्वेदन कर्म करे, नस्य देवे तथा कफ वात हरणकर्ता यल करे, यदि अति वमन से रुधिर गिरने लगे तो रक्तपित्त पर लिखी हुई चिकित्सा को करे, यदि अति वमन से तृषा आदि उपद्रव हो गये हों तो आँवला रसोत, खस, खील, चन्दन
और नेत्रवाला को जल में मथ कर ( मन्थ तैयार कर ) उस में घी; शहद और खांड डाल कर पिलावे । उत्तम वमन के लक्षण-हृदय, कण्ठ और मस्तक का शुद्ध होना, जठराग्नि की प्रबलता, देह में हलकापन तथा कफ पित्त का नष्ट होना, ये उत्तम वमन के लक्षण हैं । वमन में पथ्यापथ्य-दीप्ताग्निवाले वमनकर्ता प्राणी को तीसरे पहर मूंग, साठीचावल, शालिचावल तथा हृदय को प्रिय यूष आदि पदार्थ को खाना चाहिये,
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