Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
वर्णन इस प्रकार है कि स्मरणशक्ति कम हो जाती है, तन्दुरुस्ती में अव्यवस्था (गड़बड़) हो जाती है, स्वभाव में एकदम परिवर्तन (फेरफार) हो जाता है, चञ्चलता कम हो जाती है, काम काज में आलस्य और निरुत्साह रहता है, मन एसा अव्यवस्थित और अस्थिर बन जाता है कि उस से कोई काम नियम के साथ तथा निश्चयपूर्वक नहीं हो सकता है, मगज सम्बन्धी सब कार्य निर्बल पड़ जाते हैं, पेशाब करते समय उस के कुछ दर्द होता है अथवा पेशाब की हाजत वारंवार हुआ करती है, मूत्रस्थान का मुख लाल रंग का हो जाता है, वीय का स्राव वारंवार हुआ करता है, साधारण कारण के होने पर भी वह अधीर, भीरु और साहसहीन हो जाता है, वीर्य पानी के समान झरता है, वीर्यपात के साथ सनक सी हुआ करती है, कोथली में दर्द हुआ करता है तथा उस में भार अधिक प्रतीत होता है और स्वप्न में वारंवार वीर्यपात होता है, कुछ समय के बाद धातुस्राव सम्बन्धी अनेक भयङ्कर रोग उत्पन्न हो जाते हैं जिन से शरीर बिलकुल निकम्मा हो जाता है, इस प्रकार शरीर के निकम्मे पड़ जाने से यह बेचारा मन्दभाग्य मनुष्य धीरे २ पुरुषत्व से हीन हो जाता है, इसी प्रकार जो कोई स्त्री ऐसे दुराचरण में पड़ जाती है तो उस में से स्त्रीत्व के सब सद्गुण नष्ट हो जाते हैं तथा उस का स्त्रीत्व धर्म भी नाश को प्राप्त हो जाता है। शरीर के सम्पूर्ण बाँधों के बँध जाने के पहिले जो बालक इस कुटेव में पड़ जाता है उस का शरीर पूर्ण वृद्धि और विकाश को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि इस कुटेव के कारण शरीर की वृद्धि और उस के विकाश में अवरोध (रुकावट) हो जाता है, उस की हड्डियां और नसें झलकने लगती है, आँखें बैठ जाती है और उन के आसपास काला कैंडाला सा हो जाता है. आँख का तेज कम हो जात है. दृष्टि निबल तथा कम हो जाती है, चेहरे पर फूसियां उठ कर फूटा करती हैं, बाल झर पड़ते हैं, माथे में टाल (टाट) पड़ जाती है तथा उस में दर्द होता रहता है, पृष्ठवंश (पीटका वांस) तथा कमर में शूल (दर्द) होता है, सहारे के विना सीधा वेठा नहीं जाता है, प्रातःकाल बिछौने पर से उठने को जी नहीं चाहता है तथा किसी काम में लगने की इच्छा नहीं होती है इत्यादि । सत्य तो यह है कि अस्वाभाविक रीति से ब्रह्मचर्य के भंग करने रूप पाप की ये सब खराबियां नहीं किन्तु उस से बचने के लिये ये सब शिक्षायें हैं, क्योंकि सृष्टि के नियम से विरुद्ध होने से सृष्टि इस पाप की शिक्षाओं (सजाओं) को दिये विना नहीं रहती है, हम को विश्वास है कि दूसरे किसी शारीरिक पाप के लिये सृष्टि के नियम की आवश्यक शिक्षाओं में ऐसी कठिन शिक्षाओं का उल्लेख नहीं किया गया होगा और चूंकि इस पापाचरण के लिये इतनी शिक्षायें कहीं गई हैं, इस से निश्चय होता है कि-यह पाप बड़ा भारी है, इस महापाप को विचार कर यही कहना पड़ता है कि-इस पापाचरण की शिक्षा (सजा) इतने से ही नहीं पर्याप्त (काफी) होती है, ऐसी दशा में सृष्टि के नियम को अति कठिन कहा जावे वा इस पाप को अति बड़ा कहा जावे किन्तु सृष्टि का नियम तो पुकार कर कह रहा है कि इस पापाचरण की शिक्षा (सजा) पापाचरण करनेवाले को ही केवल नहीं मिलती है किन्तु पापाचरण करनेवाले के लड़कों को भी थोड़ी बहुत भोगनी आवश्यक है, प्रथम तो प्रायः इस पाप का आचरण करनेवालों के सन्तान उत्पन्न ही नहीं होती हैं, यदि दैवयोग से उस नराधम को सन्तान प्राप्त होती हैं तो वह सन्तान भी थोड़ी बहुत मा. बाप के इस पापाचरण की प्रसादी को लेकर ही उत्पन्न होती हैं, इस में सन्देह नहीं है, इस लेख से हमारा प्रयोजन तरुण वय वालों को भड़काने का नहीं है किन्तु इन सब सत्य बातों को दिखला कर उन को इस पापाचरण से रोकने का है तथा इस पापाचरण में पड़े हुओं को उस से निकालने का है, इसके अतिरिक्त इस लेख से हमारा यह भी प्रयोजन है कि-योग्य माता पिता पहिले ही से इस पापाचरण से आपने बालकों को बचाने के लिये पूरा प्रयल करें और ऐसे पापाचरणवाले लोगों के भी जो सन्तान होवें तो उन को भी उन की अच्छी तरह से
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