Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
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देख रेख और सम्भाल रखनी चाहिये, क्योंकि मा बाप के रोगों की प्रसादी लेकर जो लड़के उत्पन्न होते हैं उस प्रसादी की कुटेव भी उन में अवश्य होती है, इसी नियम से इस पापाचरण वालों के जो लड़के होते हैं उन में भी इस (हाथ से वीर्यपात करनेरूप) कुटेव का सञ्चार रहता है, इसलिये जिन मा बापों ने अपनी अज्ञानावस्था में जो २ भूलें की हैं तथा उन का जो २ फल पाया है उन सब बातों से विज्ञ होकर और उस विषय के अपने अनुभव को ध्यान में लाकर अपनी सन्तति को ऐसी कुटेव में न पड़ने देने के लिये प्रतिक्षण उस पर दृष्टि रखनी चाहिये
और इस कुटेव की खराबियों को अपनी सन्तति को युक्ति के द्वारा बतला देना चाहिये। प्रिय वाचक सज्जनो! आप ने देखा होगा जिस लड़के में नौ दश वर्ष की अवस्था में अति चञ्चलता थी, जो बुद्धिमान् था, जिस के कपोलों (गालों) पर सुखी थी, तथा चेहरे पर तेज और कांति थी वही लडका विना विवाह आदि किसी हेतु के कुछ समय के बाद मलिन वदन तथा और का और हो गया है, इस का क्या कारण है ? इस का कारण वही पापाचरण की विभूति है, क्योंकि वह पाप सृष्टि के नियम से ही गुप्त न रह कर उस के चेहरे आदि अङ्गों पर झलक जाता है । बहुत से व्यभिचारी और दुराचारी जन संसार को दिखाने के लिये अनेक कपट वेष से रहकर अपने को ब्रह्मचारी प्रसिद्ध करते हैं तथा भोले और अज्ञान लोग भी उन के कपट वेष को न समझ कर उन्हें ब्रह्मचारी ही समझने लगते हैं, परन्तु पाठक वर्ग ! आप इस बात का निश्चय रक्खें कि ब्रह्मचारी पुरुष का चेहरा ही उस के ब्रह्मचर्य की गवाही दे देता है, बस, लोग जिन को उन के व्यवहार से ब्रह्मचारी समझते हैं, यदि उन का चेहरा ब्रह्मचर्य की गवाही न दे तो आप उन्हें ब्रह्मचारी कभी न समझें । ( प्रश्न ) आप ने अपने इस ग्रन्थ में इस प्रकार की ये बातें क्यों लिखी हैं, क्योंकि दूसरों के दोषों को प्रकट करना हम ठीक नहीं समझते हैं, इस के सिवाय एक यह भी बात है कि यह संसार विचित्र है, इस में सब ही प्रकार के मनुष्य होते हैं अर्थात् शिष्टाचारी (श्रेष्ठ आचारवाले) भी होते हैं तथा दुराचारी भी होते हैं, क्योंकि संसार की माया ही बडी विचित्र है, इस संसार में सब एकसे नहीं हो सकते हैं और ऐसा होने से ही एक को हानि तथा दूसरे को लाभ पहुँचता है, जैसे देखो! इस कार्य (हाथ से वीर्यपात ) के करनेवाले जो मनुष्य है उन को जब कछ हानि पहुँचती है तब वैद्यों को लाभ पहुँचता है. भला सोचने की बात है कि-यदि सब ही सद्वर्ताव के द्वारा धर्मात्मा और नीरोग बन जावें तो बेचारे विद्वान् किस को उपदेश दें तथा वैद्य वा डाक्टर किस की चिकित्सा करें ? तात्पर्य यह है कि इस संसारचक्र में सदा से ही विचित्रता चली आई है और ऐसी ही चली जावेगी, इस लिये विद्वान् को किसी के छिद्रों (दोषों) को प्रकाशित (जाहिर) नहीं करना चाहिये । (उत्तर) वाह जी वाह ! यह तुम्हारा प्रश्न तुम्हारे अन्तःकरण की विज्ञता का ठीक परिचय देता है, बडे शोक और आश्चर्य की बात है कि तुम को ऐसा प्रश्न करने में तनिक भी लज्जा नहीं आई और तुम ने ज़रा भी मानुषी बुद्धि का आश्रय नहीं लिया! हमने इस ग्रन्थ में जो इस प्रकार की बातें लिखी हैं उन से हमारा प्रयोजन दूसरे के दोषों के प्रकट करने का नहीं है किन्तु सर्व साधारण को दुर्गुणों के दोष और हानियों को दिखाकर उन से बचाने और चेताने का है, देखो ! इस कुटेव के कारण हज़ारों का सत्यानाश हो गया है तथा होता जाता है, अतः हमने इस के स्वरूप को दिखाकर जो इस की हानियों का वर्णन कर इस से बचने के लिये उपदेश किया तो इस में क्या बुरा किया ? देखो ! प्राणियों को भूल और दोष से बचाना हमारा क्या किन्तु मनुष्यमात्र का यही कर्तव्य है, रही संसार की विचित्रता की बात, कि यह संसार विचित्र है-इस में सब ही प्रकार के मनुष्य होते हैं अर्थात् शिष्टाचारी भी होते हैं और दुराचारी भी होते हैं इत्यादि, सो वेशक यह ठीक है, परन्तु तुम ने कभी इस बात का भी विचार किया है कि मनुष्य दुराचारी क्यों होते हैं, उस के कारण को यदि विचार कर देखोगे तो तुम्हे मालूम हो जायगा कि मनुष्यों के दुराचारी होने में कारण केवल कुसंस्कार ही है,
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