Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
५३१ इन के सिवाय उपदंश के कारण खुजली और गुमड़े भी हो जाते हैं, तात्पर्य यह है कि-स्वचा के जितने साधारण रोग होते हैं उन्हीं के किसी न किसी रूप में उपदंश का भी रोग प्रकट होता है, इस रोग से त्वचा के ऊपर छोटी बड़ी सब प्रकार की पिटिकायें (फुसियें) भी हो जाती हैं।
उपदंश सम्बन्धी त्वग्रोग ( त्वचा का रोग ) ताम्रवर्ण ( ताँबे के रंग के समान रंगवाला) तथा गोलाकार (गोल शकल का) होता है और वह शरीर के दोनों तरफे प्रायः समान ( एक सा) ही होता है, तथा उस के मिट जाने के पीछे उस के काले दाग पड़ कर रह जाते हैं।
२-इस रोग के कारण कभी २ केश (बाल) भी निःसत्व (निर्बल) होकर गिर पड़ते हैं, अर्थात् मूंछ दाढ़ी और मस्तक पर से केश बिलकुल जाते रहते हैं।
३-नख का भाग पक कर उस में से रसी निकला करती है, नख निकल जाता है और उस स्थान में चांदी पड़ जाती है।
४-पहिले कह चुके हैं कि गर्मी के प्रारम्भ में मुख आता है (मुखपाक हो जाता है) तथा उस के साथ में अथवा पीछे से गले के भीतर चांदे पड़ जाते हैं, मसूड़े सूज जाते हैं, जीभ, ओष्ठ (ओठ वा होठ) तथा मुख के किसी भाग में चांदे हो जाते हैं और उन पर बड़ी २ पिटिकायें भी हो जाती हैं, इन के सिवाय लारीक्ष अर्थात् स्वर (आवाज) की नली सूज जाती है अथवा उस के ऊपर चांदियां पड़ जाती हैं, गर्मी के कारण जब ये उपर लिखे हुए मुख सम्बन्धी रोग हो जाते हैं उस समय रोग के भयंकर चिह्न समझे जाते हैं, क्योंकि इन रोगों के होने से श्वास लेने का मार्ग संकुचित (सकड़ा) हो जाता है तथा कभी २ नाक भी भीतर से सड़ जाती है, उस का पड़दा फूट जाता है और वह बाहर से भी झर झर के गिरने लगती है, तालु में छिद्र (छेद) होकर नाक में मार्ग हो जाता है कि जिस से खाते समय ही खुराक और पीते समय ही पानी नाक में होकर निकल जाता है तथा जीभ और उस का पड़त भी झर झर के गिर जाता है।
५-हाड़ों पर का पड़त सूज जाता है, उस पर मोठा टेकरा हो जाता है तथा उस में या तो स्वयं ही (अपने आप ही) बहुत दर्द होता है अथवा केवल दबानेसे वह दर्द करता है और उस में रात्रि के समय विशेष वेदना (अधिक पीड़ा)
१-साधारण अर्थात् कुष्ठ आदि विशेष रोगों को छोड़ कर ॥ २-दोनों तरफ अर्थात् दाहिनी और बाई ओर ॥ ३-अर्थात उस के कारण पड़े हए काले दाग नहीं मिटते हैं ॥ ४-ता यह है कि रोग के सबब से पूर्व के बाल निःसत्त्व हो कर गिर जाते हैं और पीछे जो निकलते हैं वे भी निर्बल होने के कारण बढ़ने से पूर्व ही गिर जाते हैं ॥ ५-मुख आता है अर्थात् मुख में छाले आदि पड़ जाते हैं ॥ ६-क्योंकि श्वास के मार्ग के बहुत से स्थान को उक्त रोग र लेते हैं। ७-अर्थात् निःसत्त्वता के द्वारा थोड़े २ भाग से गिरने लगती है ॥ ८-अर्थात् खान पान उसी समय ( तालु में पहुँचते ही) नाक के मार्ग से बाहर निकल जाता है ।।
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