Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
१०-पलासपापड़े की धुरकी (चूर्ण) पाव तोला (चार माने भर ) और बायविडंग पाव तोला, इन दोनों को छाछ में पिला कर दूसरे दिन जुलाब देना चाहिये।
११-बायविडंग के काथ में उसी (बायविडंग) का चूर्ण डाल कर पिलाना चाहिये, अथवा उसे शहद में चटाना चाहिये।
१२-पलासपापड़े को जल में पीस कर तथा उस में शहद डाल कर पिलाना चाहिये। १३-नींव के पत्तों का बफाया हुआ रस शहद मिला कर पिलाना चाहिये।
१४-कृमियों के निकल जाने के पीछे बच्चे की तन्दुरुस्ती को सुधारने के लिये टिंकचर आफ स्टील की दश बूंदों को एक औंस जल में मिला कर कुछ दिनों तक पिलाते रहना चाहिये।
विशेषसूचना-इसरोग में तिल का तेल, तीखे और कडुए पदार्थ, निमक, गोमूत्र (गाय की पेशाब), शहद, हींग, अजमायन, नींबू, लहसुन और कफनाशक (कफ को नष्ट करने वाले) तथा रक्तशोधक (खून को साफ करनेवाले) पदार्थ पथ्य हैं, तथा दूध, मांस, घी, दही, पत्तों का शाक, खट्टा तथा मीठा रस और आटे के पदार्थ, ये सब पदार्थ कुपथ्य अर्थात् कृमियों को बढ़ाने वाले हैं, यदि कृमिवाले बच्चे को रोटी देना हो तो आटे में निमक डाल कर तवे पर तेल से तल कर देनी चाहिये, क्योंकि यह उस के लिये लाभदायक (फायदेमन्द ) है।
आधाशीशी का वर्णन । कारण-आधाशीशी का दर्द प्रायः भौओं में विशेष रहता है तथा यह (आधाशीशी का) दर्द मलेरिया की विषैली हवा से उत्पन्न होता है और ज्वर के समान नियत समय पर शिर में प्रारम्भ होता है, इस रोग में आधे दिनतक प्रायः शिर में दर्द अधिक रहता है', पीछे धीरे २ कम होता जाता है अर्थात् सायंकाल को बिलकुल बंद हो जाता है, परन्तु किसी २ के यह दर्द सब दिन रहाता है तथा किसी २ समय अधिक हो जाता है।
१-पलासपापड़े की बुरकी अर्थात् ढाक के बीजों का चूर्ण ॥ २-बायबिडंग डालकर औटाये हुए जल में बायबिडंग का ही बधार देकर तैयार कर लेना चाहिये, इस के पीने से कृमिरोग
और कृमिरोगजन्य सब रोग दूर हो जाते हैं ॥ ३-धतूरे के पत्तों का रस भी शहद डाल कर पीने से कृमिरोग नष्ट हो जाता है ॥ ४-क्योंकि टिंक्चर आफ स्टील शक्तिप्रद (ताकत देनेवाली) ओषधि है ॥ ५-ग्यारह प्रकार के मस्तक रोगों (मस्तक सम्बन्धी रोगों) में से यह आधाशीशी नामक एक भेद है, इस को संस्कृत में अर्धावमेदक कहते हैं, इस रोग में प्रायः आधे शिर में महाकठिन दर्द होता है ॥ ६-नियत समय पर इस का प्रारंभ होता है तथा नियत समय पर ही इस की पीडा मिटती है ॥ ७-अर्थात् ज्यों २ सूर्य चढता है त्यों २ यह दर्द बढ़ता जाता है तथा ज्यों २ सूर्य ढलता है त्यों २ यह दर्द भी कम होता जाता है ।
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