Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
कभी २ ऐसा भी होता है कि-चमड़ी फूल के ऊपर चढ़ी रहती है और फूलपर सूजन के हो जाने से चमड़ी नीचे को नहीं उतर सकती है परन्तु कई बार चमड़ी के नीचे को उतर जाने के पीछे चाँदी की रसी भीतर रह जाती है इस लिये भीतर का भाग तथा चमड़ी सूज जाती है और चमड़ी सुपारी के ऊपर नहीं चढ़ती है, ऐसे समय में भीतर की चाँदी का जो कुछ हाल होता है उस को नज़र से नहीं देख सकते हैं।
कभी २ सुपारी के.भीतर मूत्रमार्ग में (पेशाब के रास्ते में) चाँदी पड़ जाती है तथा कभी २ यह चाँदी जब जोर में होती है, उस समय आसपास की जगह खजती जाती है तथा वह फैलती जाती है, उस को प्रसारयुक्त टांकी (फाज़ेडीना) कहते हैं, इस चाँदी के साथ बदगांठ भी होती है तथा वह पककर फूटती है, जिस जगह बद होती है उस जगह गढ्ढा पड़ जाता है और वह जल्दी अच्छा भी नहीं होता है', कभी २ इस चाँदी का इतना जोर होता है कि इन्द्रिय का बहुत सार भाग एकाएक (अचानक) सड़ कर गिर जाता है, इस प्रकार कभी २ तो सम्पूर्ण इन्द्रिय का ही नाश हो जाता है, उस के साथ रोगी को ज्वर भी आ जाता है तथा बहुत दिनोंतक उसे अतिकष्ट उठाना पड़ता है, इस को सड़नेवाली चाँदी (स्लफीन) कहते हैं, ऐसी प्रसरयुक्त और सड़नेवाली टांकी प्रायः निर्बल (कमजोर ) और दुःखप्रद (दुःख देनीवाली) स्थिति (हालत) के मनुष्य को होती है। ___ कभी २ ऐसा भी होता है कि-नरम अथवा सादी चाँदी मूल से तो नरम होती है परन्तु पीछे कहीं २ किन्हीं २ दूसरे क्षोभक (क्षोभ अर्थात् जोश दिलानेवाले) कारणों से कठिण हो जाती है तथा कहीं २ नरम और कठिन दोनों प्रकार की चाँदी साथ में एक ही स्थान में होती है, किन्हीं पुरुषों के इन्द्रिय के ऊपर सादी फुसी और चाँदी होती है, उस का निश्चय करने में अर्थात् यह फुसी वा चाँदी गर्मी की है वा नहीं, इस बात के निर्णय करने में बहुत कठिनता ( दिक्कत वा मुशकिल ) होती है।
चिकित्सा--प्रथम जब सादी चाँदी हो उस समय उस को नाइट्रिक एसिड से जला देना चाहिये, अर्थात् एसिड की दो बूंदें उस के ऊपर डाल देनी चाहिये, अथवा रुई को एसिड में भिगा कर लगा देना चाहिये, परन्तु एसिड के लगाते समय इस बात का अवश्य खयाल रखना चाहिये कि-एसिड
१-अर्थात् फूल का भाग खुला रह जाता है ॥ २-अर्थात् तीक्ष्ण वा वेगयुक्त होती है। ३-खजती जाती है अर्थात् निकम्मी पड़ती जाती है ॥ ४-प्रसरयुक्त अर्थात् फैलनेवाली ।। ५-अर्थात् वह गढ़ा बहुत कठिनता से बहुत समय में तथा अनेक यत्नों के करनेपर मिटता है ।। ६-नरम अर्थात् मन्द वेगवाली ॥ ७-क्षोभक कारणों से अर्थात् उस में वेग वा तीक्ष्णता को उत्पन्न करनेवाले कारणों से ॥ ८-नाइट्रिक एसिड एक प्रकार का तेज़ाब होता है।
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