Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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. चतुर्थ अध्याय । गर्मी आदि कारणों से मनुष्य की आतें नरम और शक्तिहीन (नाताकत ) पड़ जाती है, निर्धनावस्था में किसी उद्यम के न होने से तथा जाति और सांसारिक (दुनिया की) प्रथा (रिवाज) के कारण औसर और विवाह आदि में व्यर्थ खर्च के द्वारा धन का अधिक नाश होने से उत्पन्न हुई चिन्ता से अग्नि मन्द हो जाती है तथा अजीर्ण हो जाता है, इत्यादि अनेक कारण अग्नि की मन्दता तथा अजीर्ण के हैं।
चिकित्सा-१-इस रोग की अधिक लग्बी चौड़ी चिकित्सा का लिखना व्यर्थ है, क्योंकि इस की सर्वोपरि (सब से ऊपर अर्थात् सब से अच्छी) चिकित्सा यही है कि ऊपर कहे हुए कारणों से बचना चाहिये तथा साधारण हलकी खुराक खाना चाहिये, शक्ति के अनुसार व्यायाम (कसरत) करना चाहिये, तथा सामान्यतया शरीर की आरोग्यता को बढ़ानेवाली साधारण दवा. इयों का सेवन करना चाहिये, बस इन उपायों के सिवाय और कोई भी ऐसी चतुराई नहीं है कि जिस से इस रोग से बचाव हो सके।
२-न पचनेवाली अथवा अधिक काल में पचनेवाली वस्तुओं का त्याग करना चाहिये, जैसे-तरकारी, सब प्रकार की दालें, मेवा, अधिक घी, मक्खन, मिठाई तथा खटाई आदि।
३-दूध, दलिया, खमीर की अथवा आटे में अधिक मोयन (मोवन) देकर गर्म पानी से उसन कर बनाई हुई पतली २ थोड़ी रोटी, बहुत नरम और थोड़ी चीज, काफी, दाल तथा मूंग का ओसामण आदि खुराक बहुत दिनों तक खानी चाहिये।
४-भोजन करने का समय नियत कर लेना चाहिये अर्थात् समय और कुसमय में नहीं खाना चाहिये, न वारंवार समय को बदलना चाहिये और न बहुत देर करके खाना चाहिये, रात को नहीं खाना चाहिये, क्योंकि रात्रि में भोजन करने से तनदुरुस्ती बिगड़ती है।
बहुत से अज्ञान लोग रात्रि में भोजन करते हैं तथा इस विषय में अंग्रेजों का उदाहरण देते हैं अर्थात् वे कहते हैं कि-"अंग्रेज लोग रात्रि में सदा खाते हैं
१-बहुत से लोग इस (अजीर्ण)रोग में कुछ दिनों तक कुछ पथ्यादि रखते हैं परन्तु जब कुछ फायदा नहीं होता है तब खिन्न होकर पथ्यादि से चलना छोड़ देते हैं, क्योंकि वे समझते है कि पथ्यपूर्वक चलने से कुछ फायदा तो होता नहीं है फिर क्यों पथ्य से चलें, ऐसा समझकर पथ्य और कुपथ्य आदि सब ही पदार्थों का उपयोग करने लगते हैं, सो यह उन की भूल है क्योंकि-इस रोग में थोड़े ही दिनों तक पथ्यपूर्वक चलने से कुछ भी फायदा नहीं हो सकता है किन्तु एक अर्सेतक (बहुत दिनों तक ) पथ्यपूर्वक चलना चाहिये तब फायदा मालूम होता है, थोड़े दिनों तक पथ्यपूर्वक बर्ताव कर फिर उसे छोड़ देने से तो उलटी और भी हानि होती है, क्योंकि आमाशय और अश्याशय बिगड़ जाता है और उस से दूसरे भी अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
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