Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
४९५ इस रोग में प्रमाद (गफलत) करने से इस का असर शरीर में बहुत दिनोंतक बना रहता है अर्थात् अजीर्ण पुराना पड़ कर शरीर में अपना घर कर लेता है
और फिर उस का मिटना अति कठिण हो जाता है। __बहुधा यह भी देखा गया है कि बहुत से आदमियों के यह अजीर्ण रोग सदा ही बना रहता है परन्तु बहुतसे उस का यथोचित उपाय नहीं करते हैं, इस का अन्त में परिणाम यह होता है कि-वे उस रोग के द्वारा अनेक कठिन रोगों में फंस जाते हैं और रोगों की फर्यादी (पुकार ) करते हुए तथा अत्यन्त व्याकुल होकर अनेक मूर्ख वैद्यों से अपना दुःख रोते हैं, तथा मूर्ख वैद्य भी अजीर्ण के कारण को ठीक न जान कर मनमानी चिकित्सा करते हैं कि जिस से रोगी के उदर की अग्नि सर्वदा के लिये बिगड़ कर उन को दुःख देती है, तथा अजीर्णरोग मृत्युसमय तक उन का पीछा नहीं छोड़ता है, इस लिये मन्दाग्नि तथा अजीर्णवाले पुरुष को सादी और बहुत हलकी खुराक खानी चाहिये, जैसे-दाल भात और दलिया आदि, क्योंकि यह खुराक ओषधि के समान ही फायदा करती है, यदि इस से लाभ प्रतीत (मालूम) न हो तो कोई अन्य साधारण चिकित्सा करनी चाहिये, अथवा किसी चतुर वैद्य वा डाक्टर से चिकित्सा करानी चाहिये ॥
पुराने अजीर्ण (डिसपेपसिया) का वर्णन । वर्तमान समय में यह अजीर्ण रोग बड़े २ नगरों के सुधरे हुए भी समाज का तथा प्रत्येक घर का खास मर्ज बन गया है, देखिये ! अनेक प्रकार के मनमाने भोजन करने के शौक में पड़े हुए तथा परिश्रम न करनेवाले अर्थात् गद्दी तकियों का सहारा लेकर दिनभर पड़े रहनेवाले अनेक सभ्य पुरुषोंपर यह रोग उन की सभ्यता का कुछ विचार न कर वारंवार आक्रमण (हमला) करता है, परन्तु जो लोग चमचमाहटदार तथा स्वादिष्ट खान पान के आनन्द और उन के शौक से बचते हैं, तथा जो लोग रात को नाच तमाशे और नाटक आदि के देखने की लत से बच कर साधारणतया अपने जीवन का निर्वाह करते हैं उनपर यह रोग प्रायः दया करता है अर्थात् वे पुरुष प्रायः इस रोग से बचे रहते हैं। __ पाठकगण इस के उदाहरण को प्रत्यक्ष ही देख सकते हैं कि-बम्बई, हैदराबाद, कलकत्ता, बीकानेर, अहमदाबाद और सूरत आदि जैसे शौकीन नगरों में इस रोग का अधिक फैलाव है तथा साधारणतया निर्वाह करने योग्य सर्वत्र ग्राम
१-तात्पर्य यह है कि–पहिले जो अजीर्ण रोग उत्पन्न हुआ था उस की ठीक तौर से चिकित्सा न की जाने से तथा उस के बढ़ानेवाले मिथ्या आहार और विहार के सेवन से उस की जड़ कायम हो जाने से वह प्रत्येक घर का एक खास मर्ज बन गया है ॥ २-अर्थात् ये सभ्य पुरुष हैं इन को तो मैं न सताऊँ, इस बात का कुछ भी विचार न कर के॥ ३-तात्पर्य यह है कि खाने पीने आदि के विशेष शौक में न पड़कर तथा यथोचित शारीरिक आदि परिश्रम कर जो अपना निर्वाह करते हैं उन को यह रोग नहीं सताता है।
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