Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
View full book text
________________
५०६
जैनसम्प्रदायशिक्षा। के ही और कभी २ ही होता है परन्तु किसी २ समय यह रोग बहुत फैलता हैं' तथा वसन्त और वर्षा ऋतु में प्रायः इस का जोर अधिक होता है।
कारण-मरोड़ा होने के मुख्यतया दो कारण हैं-उन में से एक कारण इस रोग की हवा है अर्थात् एक प्रकार की ठंढी हवा इस रोग को उत्पन्न करती है
और उस हवा का असर प्रायः एक स्थान के रहनेवाले सब लोगों पर यद्यपि एक समान ही होता है तथापि अशक्त (नाताकत) मनुष्य और पाचनक्रिया के व्यतिक्रम (गड़बड़) से युक्त मनुष्यपर उस हवा का असर शीघ्र ही होता है।
इस रोग का दूसरा कारण खुराक है अर्थात् कच्चा और भारी अन्न, मिर्च, गर्म मसाले और शाक तरकारी आदि के खाने से बादी तथा मरोड़ा उत्पन्न होता है। - इस रोग की उत्पत्ति का क्रम यह है कि-जब दस्त की कब्जी रहती है तथा उस के कारण मल आंतों में भर जाता है तथा वह मल आँतों के भीतरी पड़त को घिसता है तब मरोड़ा उत्पन्न होता है। ___ इस के सिवाय-गर्म खुराक के खाने से तथा ग्रीष्म ऋतु (गर्मी की मौसम) में सख्त जुलाब के लेने से भी कभी २ यह रोग उत्पन्न हो जाता है। __ लक्षण-मरोड़े का प्रारंभ प्रायः दो प्रकार से होता है अर्थात् या तो सख्त मरोड़ा होकर पहिले अतीसार के समान दस्त होता है अथवा पेट में कब्जी होकर सख्त दस्त होता है अर्थात् टुकड़े २ होकर दस्त आता है, प्रारम्भ में होनेवाले इस लक्षण के सिवाय-बाकी सब लक्षण दोनों प्रकार के मरोड़े में प्रायः समान ही होते हैं। __ इस रोग में दस्त की शंका वारंवार होती है तथा पेट में ऐंठन होकर क्षण २ में थोड़ा २ दस्त होता है, दस्त की हाजत वारंवार होती है, काँख २ के दस्त माता है (उतरता है), शौचस्थान में ही बैठे रहने के लिये मन चाहता है तथा खून और पीप गिरता है।
१-इस के फैलने के समय मनुष्यों की अधिकांश संख्या इस रोग से पीड़ित हो जाती है ।। २-क्योंकि वसन्त और वर्षा ऋतु में कम से कफ और वायु का कोप होने से प्रायः अग्नि मन्द रहती है ॥ ३-अशक्त और पाचनक्रिया के व्यतिक्रम से युक्त मनुष्य की जठराग्नि प्रायः पहिले से ही अल्पबल होती है तथा आमाशय में पहिले से ही विकार रहता है अतः उक्त हवा का स्पर्श होते ही उस का असर शरीर में हो कर शीघ्र ही मरोढ़ा रोग उत्पन्न हो जाता हैं ॥ ४-तात्पर्य यह है कि उक्त खुराक के ठीक रीति से न पचने के कारण पेट में आमरस हो जाता है वही आँतों में लिपट कर इस रोग को उत्पन्न करता है ॥ ५-मल आंतों में और गुदा की भीतरी बली में फंसा रहता है और ऐसा मालूम होता है कि वह गिरना चाहता है इसी से वारंवार दस्त की आशङ्का होती है ॥ ६-काँख २ के अर्थात् विशेष बल करने पर ॥ ७-वारंवार यह प्रतीत होता है कि अब मल उतरना चाहता है इस लिये शौचस्थान से उठने को जी नहीं चाहता है ॥ ८-पीप अर्थात् कच्चा रस (आम वा गिलगिला पदार्थ) ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com