Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
तथा किसी समय अत्यन्त ही कम हो जाता है, इस लिये यह भी नहीं मालूम पड़ता है कि-कब अधिक हुआ और कब कम हुआ, यह बात प्रकटतया थर्मामेटर से ठीक मालूम होती है, तात्पर्य यह है कि-इस ज्वर की दो स्थिति होती हैं-जिन में से पहिली स्थिति में थोड़े २ अन्तर से ऊपर ही ऊपर ज्वर का चढ़ाव उतार होता है और पीछे दूसरी स्थिति में ज्वर की भरती (आमद) अनुमान भाठ २ घण्टे तक रहती है, इस समय चमड़ी बहुत गर्म रहती है, नाड़ी बहुत जल्दी चलती है, श्वासोच्छास बहुत वेग से चलता है और मन को विकलता प्राप्त होती है अर्थात् मन को चैन नहीं मिलता है, ज्वर की गर्मी किसी समय १०४ तक तथा किसी समय उस से भी आगे अर्थात् १०५ और १०७ तक भी बढ़ जाती है, इस प्रकार आठ दश घंटे तक अधिक वेगयुक्त होकर पीछे कुछ नरम (मन्द) पड़ जाता है तथा थोड़ा २ पसीना आता है, ज्वर की गर्मी के अधिक होने से इस के साथ खांसी, लीवर का वरम (शोथ), पाचनक्रिया में अव्यवस्था ( गड़बड़) अतीसार और मरोड़ा आदि उपद्रव भी हो जाते हैं।
इस ज्वर में प्रायः सातवें दशवें वा बारहवें दिन तन्द्रा (मीट) अथवा सन्निपात के लक्षण दीखने लगते हैं तथा इस ज्वर की उचित चिकित्सा न होने से यह १२ से २४ दिन तक ठहर जाता है ।
चिकित्सा-यह सन्ततज्वर (रिमिटेंट फीवर) बहुत ही भयंकर होता है इस लिये यदि गृहजनों को इस का ठीक परिज्ञान न हो सके तो कुशल वैद्य वा डाक्टर से इस की परीक्षा करा के चिकित्सा करानी चाहिये, क्यों कि सख्त और भयंकर बुखार में रोगी ७ से १२ दिन के अन्दर मर जाता है और जब रोग अधि. कदिन तक ठहर जाता है तो गम्भीर रूप पकड़ लेता है अर्थात् पीछे उसका मिटना अति दुःसाध्य ( कठिन) हो जाता है, सब से प्रथम इस बुखार की मुख्य चिकित्सा यही है कि-बुखार की टेम्परेचर (गर्मी) को जैसे हो सके वैसे कम करना चाहिये", क्यों कि ऐसा न करने से एकदम खून का जोश चढ़कर मगज़ में शोथ हो जाता है तथा तन्द्रा और त्रिदोष हो जाता है इस लिये गर्मी को कम
१-क्योंकि थमा मेटर के लगाने से गर्मी की न्यूनता (कमी) तथा अधिकता ( ज्यादती; स्पष्ट मालूम हो जाती है, बस उसी से ज्वर की भी न्यूनता तथा अधिकता मालूम कर ली जाती है, अर्थात् गर्मी की न्यूनता से ज्वर की न्यूनता तथा गर्मी की अधिकता का निश्चय हो जाता है, क्योंकि पहिले लिख चुके हैं कि ज्वर के वेग में गर्मी बढ़ती जाती है, थर्मामेटर के लगाने की रीति पहिले लिख चुके हैं ॥ २-नाड़ी का शीघ्र चलना तथा श्वासोच्छास का वेग से आना, ये दोनों बातें ज्वर के वेग के ही कारण होती हैं तथा उसी से हृदय की अस्वस्थता होकर मन के विकलता प्राप्त होती है ।। ३-तात्पर्य यह है कि-वात के प्रकोप में सातवें दिन, पित्त के प्रकोप में दशवें दिन तथा कफ के प्रकोप में बारहवें दीन तन्द्रा होती है अथवा पूर्व लिखे अनुसार एक दोष कुपित हुआ दूसरेदोपों को भी कुपित कर देता है इस लिये सन्निपात के लक्षण दीखने लगते हैं ॥ ४-तात्पर्य यह है कि दोषों की प्रबलता के अनुसार इस की १२ से २४ दिन तक स्थिति रहती है ॥ ५-अर्थात् गर्मी को यथाशक्य उपायों द्वारा बढ़ने नहीं देना चाहिये ।
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